गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण पृ. 1106

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण

अध्याय-18
मोक्ष-संन्यास-योग
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(52)
विविक्तसेवी लध्वाशी
यतवाक्कायमानस: ।
ध्यानयोगपरो नित्यं
वैराग्यं समुपाश्रित: ॥

विविक्त-सेवी[1]मिताहारी[2] हो
यतमान[3] कर काय-मन-वाणी को।
ध्यान-मग्न ही रहता नित्य जो
होता विरागी पुरुष यथार्थ वो।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. एकान्त में रहने वाला
  2. अल्प व नियमित भोजन करने वाला
  3. नियन्त्रित व वश में किए हुए

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5. कर्म-संन्यास योग 474
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16. दैवासुर-संपद-विभाग-योग 947
17. श्रद्धात्रय-विभाग-योग 982
18. मोक्ष-संन्यास-योग 1016
अंतिम पृष्ठ 1142

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