गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
अध्याय-18
मोक्ष-संन्यास-योग
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(52)
विविक्तसेवी लध्वाशी
यतवाक्कायमानस: ।
ध्यानयोगपरो नित्यं
वैराग्यं समुपाश्रित: ॥
विविक्त-सेवी[1]मिताहारी[2] हो
यतमान[3] कर काय-मन-वाणी को।
ध्यान-मग्न ही रहता नित्य जो
होता विरागी पुरुष यथार्थ वो।।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ एकान्त में रहने वाला
- ↑ अल्प व नियमित भोजन करने वाला
- ↑ नियन्त्रित व वश में किए हुए
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