गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
मोक्ष-संन्यास-योग
(11) भगवान कृष्ण ने कहा है कि - बुद्धि तथा ज्ञान का देने वाला, क्षमा, सत्य, शम, दम, भय, अभय, अहिंसा, समता, सन्तोष, तप, दान, यश, अयश का देने वाला, मोह को दूर करने वाला[1] तथा वेदों के द्वारा ज्ञेय व वेदों का कर्ता; स्मृति, ज्ञान, अपोहन[2] करने वाला मैं ही हूँ[3]; नर-तनुधारी अव्ययी ब्रह्म; अमृत, मोक्ष-रूप परम शान्ति; शाश्वत धर्म तथा सुख दुःख का आश्रय व प्रतिष्ठान[4] मुझे ही समझो[5] मुझे ही प्राणी मात्र का प्रभव; अखिल विश्व में व्याप्त समझकर जो मेरी पूजा व अर्चना[6] करता है और अपने गुण-कर्म-विभागानुसार नियत कर्मों को स्वधर्म समझ कर निष्काम बुद्धि से करता है उसे कर्म-सिद्धि प्राप्त होती है[7] (12) कर्म-सिद्धि का यह उपदेश भगवान कृष्ण ने अर्जुन की मनु आज्ञा के विरुद्ध उस शंका को दूर करने के लिए दिया है जो अर्जुन ने आरम्भ में ही यह कहकर व्यक्त की थी कि धृतराष्ट्र के आततायी पुत्रों का वध करने में भी पाप होगा[8] इतना उपदेश करने के पश्चात कर्म सिद्धि प्राप्त करने का उपाय यही बताया है कि, “मच्चित्त व मत्परायण होकर मुझ में ही दत्त चित्त हो समस्त कर्म करते रहने पर, मन्मना व मेरा अनन्य भक्त होने से समस्त पापों से मुक्त हो जावेगा[9]। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अध्याय 10 श्लोक 4 व 5
- ↑ प्रलय व नाश करने वाला
- ↑ अध्याय 15 श्लोक 15
- ↑ अन्तिम लक्ष या स्थान
- ↑ अध्याय 14 श्लोक 27
- ↑ स्वधर्म-रूप-कर्तव्य कर्म का करना ही ईश्वर की पूजा व अर्चना कहा गया है
- ↑ अध्याय 18 श्लोक 45 व 46
- ↑ अध्याय 1 श्लोक 36)
- ↑ अध्याय 18 श्लोक 57, 58, 65 व 66
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