गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
मोक्ष-संन्यास-योग
(9) यह समस्त उपदेश कुरुक्षेत्र की युद्ध-भूमि में उस समय दिया गया है जबकि युद्ध के लिए दोनों ओर की सेनाएँ तैयार खडी हैं; युद्ध आरम्भ करने के संकेत स्वरूप भीष्म-पितामह ने कौरवों की तरफ से शंख बजा दिया था, और उनके उत्तर में पाण्डवों की तरफ से कृष्ण व अर्जुन ने भी अपने अपने शंख बजा दिये थे[1] किन्तु ठीक युद्ध आरम्भ होने के समय अर्जुन को अध्याय 1 श्लोक 28 से 46 में वर्णित कारणोंवश युद्ध-निर्वेद हो गया अतः अर्जुन की उस ग्लानि को उसी समय दूर कर उसे युद्ध के लिए तैयार करना था। इस कारण यह उपरोक्त भूमिका तैयार करने के पश्चात भगवान कृष्ण ने यत्न को युद्ध-जनित-पापों से बचने का उपाय अध्याय 4 श्लोक 34 व 40 में कहे अनुसार समस्त कर्मों को अध्यात्म मन से कृष्णार्पण करके इस निर्मम व निराशी भावना से करने का उपदेश किया है कि “जो कुछ किया जा रहा है वह परमब्रह्म परमेश्वर ही कर रहा है मैं कुछ नहीं करता।”[2] (10) अनन्य भाव से परमेश्वर परायण हो समस्त नित्य-नैमित्तिक कर्मों को ब्रह्मार्पण करके इस बुद्धि व भावना से करना चाहिए कि जो कुछ भी किया जा रहा है वह सब ईश्वर ही कर रहा है क्योंकि किसी भी कार्य या कर्म में प्रवृत्ति होना या निवृत्ति होना; कार्य-अकार्य को पहचानना; धर्म-अधर्म भय-अभय का ज्ञान होना; तथा यह ज्ञान होना कि कौन से कर्म तो बन्धनात्मक हैं और कौन से कर्म मोक्षप्रद हैं; यह सब सात्त्विक बुद्धि के गुण हैं और इन समस्त बातों का बोध व ज्ञान सात्त्विक बुद्धि द्वारा होता है;[3] और यह सात्त्विक बुद्धि आत्मनि, आत्मरत, आत्मतुष्ट आत्म-ज्ञानी पुरुष की होती है तथा आत्म-ज्ञान प्राप्त हो जाने पर ज्ञान-रूप-अग्नि में समस्त कर्म बन्धन भस्म हो जाते हैं और वह व्यक्ति पाप-पारावार से तरित हो पाप का भागी नहीं बनता;[4] जो व्यक्ति विशुद्धात्मा, विजितात्मा जितेन्द्रिय तथा समदर्शी होता है वह कर्म करके भी कर्मों से अलिप्त रहता है[5] अतः अर्जुन को आत्मवन्त होकर सदासद विवेक बुद्धि द्वारा अपने स्वधर्म-रूप-युद्ध-कर्म को करने और अज्ञान के कारण जो विकल्प उसके मन में पैदा हो गया था उसे निरस्त करके, सिद्धि प्राप्त करने का सर्वोत्तम उपाय बताया है।[6] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अध्याय 1 श्लोक 12 व 14
- ↑ अध्याय 3 श्लोक 30 व 31;- अध्याय 4 श्लोक 10, 24, 41;- अध्याय 5 श्लोक 10, 13, 17;- अध्याय 8 श्लोक 7, 16, 28;- अध्याय 9 श्लोक 22, 27, 28, 34;- अध्याय 12 श्लोक 6, 7, 8, 10
- ↑ अध्याय 18 श्लोक 30 से 32
- ↑ अध्याय 4 श्लोक 36, 37, 41
- ↑ अध्याय 5 श्लोक 7
- ↑ अध्याय 4 श्लोक 42
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