गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
मोक्ष-संन्यास-योग
गीता में यह सिद्धांत निश्चित रूप से निरूपित किया गया है कि परम ब्रह्म परमेश्वर ही सृष्टि को रचने वाला है और अपनी मायादेवी[1]में अधिष्ठित होकर जगत् के समस्त कर्मों को, व्यापार, व्यवहार व चेष्टाओं को करता है। स्थावर-जंगम सृष्टि का जो भी विस्तार है वह सब प्रकृति अथवा माया का विस्तार है। इस सिद्धान्त के निरूपण करने का अर्थ यही समझाना है कि ईश्वर द्वारा निर्मित सृष्टि के व्यवहारों को सुगमता व सरलता से चलाने के लिए जो चतुर्वर्ण व्यवस्था स्वयं ईश्वर द्वारा गुण व स्वभाव के अनुसार स्थापित की गई है उसका पालन उसके द्वारा निर्मित मानव-सृष्टि द्वारा करना नैतिक-दृष्टि से स्वधर्म-रूपी कर्तव्य-कर्म है। अतः स्वधर्मानुकूल नियत व निर्धारित अनादि कर्मों को विगुण होने पर भी करते रहना ही श्रेयस्कर होता है[2]; क्योंकि अध्याय 18 श्लोक 48 समस्त कर्म, उद्योग, तथा व्यवसाय किसी न किसी कमी या दोष से वैसे ही व्याप्त रहते हैं जैसे अग्नि धुँए से प्रच्छन्न रहती है; अतः ज्ञान रूपी वायु से दोष-रूप धुँए को दूर करके कर्म को प्रज्वलित अग्नि के समान बनाना चाहिए। इस प्रकार चतुर्वर्ण व्यवस्था द्वारा गुण-कर्म-विभागानुसार स्वधर्म रूप नियत कर्म करने से सिद्धि मिल जाती है। अर्जुन वेदान्ती तथा सांख्य शास्त्रज्ञ था। वेद-शास्त्रों द्वारा प्रतिपादित यज्ञ-याग आदि कर्म-काण्ड तथा सांख्य शास्त्र द्वारा प्रतिपादित “संन्यास मार्ग” में मूल-रूप से कर्म-योग-मार्ग निहित है किन्तु महाभारत के समय तक इस मूल-भूत कर्म-योग-मार्ग को लोग भूल गए थे और वैदिक कर्म-काण्ड “इदं न मम” की नि.स्वार्थ भावना का लोप होकर स्वार्थ-परायण काम्य-कर्म भावना ने ही स्थान ग्रहण कर लिया था; भोग, विलास, सुख, वैभव, सन्तान, संपत्ति, स्वर्ग-प्राप्ति आदि कामनाओं से कर्म-काण्ड किए जाने लगे थे। इस ही प्रकार सांख्य-शास्त्र के “संन्यास” को कर्म का स्वरूपतः त्याग समझकर यह अर्थ समझा जाने लगा था कि कर्म करना छोड़कर संसार को त्यागकर एकान्त व निर्जन वन में चला जाना चाहिए; [3] अतः अर्जुन का ज्ञान भी इन दोनों शास्त्रों के विषय में उस समय के अनुसार विशुद्ध न होकर विकृत ही था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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