गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण पृ. 1092

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण

अध्याय-18
मोक्ष-संन्यास-योग
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(47)
श्रेयान्स्वधर्मो विगुण:
परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।
स्वभावनियतं कर्म
कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ॥

स्वनुष्ठित[1] भी परम धर्म से
स्व-धर्म विगुण[2]भी होता श्रेष्ठ।
स्वभाव-विनियत[3] कर्म कार्य से
पाप न लगता है लवलेश।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. लाभप्रद व सहज ही करने योग्य
  2. आयासक व श्रेष्ठ गुणों से रहित
  3. प्रकृति-जन्य-गुण व स्वभाव के अनुसार निर्धारित या नियत

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5. कर्म-संन्यास योग 474
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17. श्रद्धात्रय-विभाग-योग 982
18. मोक्ष-संन्यास-योग 1016
अंतिम पृष्ठ 1142

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