गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण पृ. 1089

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण

अध्याय-18
मोक्ष-संन्यास-योग
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अर्थात सर्परूप राजा नहुष ने पूछा किः- संसार में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यशूद्र यह चार वर्ण हैं जिनके प्रमाण वेद व सत्य हैं; किन्तु जो गुण सत्य, क्षमा, दान, शील-स्वभाव, अहिंसा, तप आदि ब्राह्मण के बताए गए हैं वह गुण यदि शूद्र में हों तो क्या वह शूद्र ब्राह्मण की गणना में आ सकता है ? इस प्रश्न का उत्तर युधिष्ठिर ने इस प्रकार दिया हैः-

युधिष्ठिर उवाच-

“शुद्रेतु यद्भवेल्लक्ष्मद्विजेतच्च न विद्यते।
न वैशूद्रो भवेच्छूद्रो ब्राह्मणे न च ब्राह्मणः।।25।।

यत्रैतल्लक्ष्यते सर्प वृत्तंस ब्राह्मणः स्मृतः।
यत्रै तत्र भवेत्सर्प तं शुद्रमिति निर्दिशेत्।।26।।

अर्थात-

युधिष्ठिर ने कहा कि-

“ब्राह्मण के लक्षण यदि शूद्र में हों और शूद्र के गुण व लक्षण ब्राह्मण में हों तो ब्राह्मण ब्राह्मण नहीं होता किन्तु शूद्र होता है; और ब्राह्मण के गुण व लक्षण वाला शूद्र ब्राह्मण होता है।” इस विवेचन से यह स्पष्ट है कि जिसे भारत में वर्ण-व्यवस्था कहते हैं और जो शास्त्रों द्वारा परिबद्ध कर दी गई है वह व्यवस्था विश्व-व्यापी है यद्यपि भारत के सिवा यह चार वर्ण अन्य देशों में प्रथक-प्रथक नाम से संज्ञित नहीं हैं किन्तु श्लोक 42 से 44 में वर्णित लक्षण व कर्मों के अनुसार यह विभाजन स्वभाविक व विश्व-व्यापी है। यह चतुर्वर्ण व्यवस्था संकुचित या परिसीमित नहीं है जैसा कि उपरोक्त युधिष्ठिर के वाक्य से स्पष्ट है।  

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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5. कर्म-संन्यास योग 474
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14. गुणत्रय-विभाग-योग 883
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17. श्रद्धात्रय-विभाग-योग 982
18. मोक्ष-संन्यास-योग 1016
अंतिम पृष्ठ 1142

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