गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण पृ. 1085

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण

अध्याय-18
मोक्ष-संन्यास-योग
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प्रकृति के सत्त्व, रज, तम तीनों गुणों के विषय में यह सिद्धान्त निरूपित किया गया है कि इन तीनों गुणों का उद्भव व विकास प्रकृति से होता है[1] और यह प्रकृति जो सृष्टि की रचना करने वाली तथा क्रियमाण हेतु व कर्तृत्व है उसे परमेश्वरीय माया कहा गया है जो ईश्वर द्वारा अधिष्ठित रहती है। सृष्टि की उत्पत्ति करने वाली प्रकृति को ब्रह्मयोनी तथा व्यक्त रूप कृष्ण परम ब्रह्म परमेश्वर को चेतना-रूप बीज बताकर यह समझाया गया है कि जड़-प्रकृति[2] तथा चेतना-रूप बीज[3] के संयोग से ही समस्त भूत प्राणी का तथा स्थावर जंगम सृष्टि का निर्माण होता है[4]

त्रिगुणात्मक प्रकृति द्वारा स्थावर-जंगम सृष्टि का निर्माण होना; प्रकृति द्वारा निर्मित सृष्टि में प्रकृति के सत्त्व, रज, तम तीनों गुणों का होना तथा प्रकृति पर परम ब्रह्म परमेश्वर का अधिष्ठित रहना और परमेश्वर द्वारा अधिष्ठित प्रकृति से ही प्रकृति का क्रिय-माण होना बताकर अध्याय 14 में प्रकृति के सत्त्व, रज, तम तीनों गुणों के लक्षण व गुणों का विवेचन किया गया है।

त्रिगुणात्मक प्रकृति द्वारा मानव सृष्टि का निर्माण होने के कारण कार्य-कारण सिद्धान्त के आधार पर मनुष्य में प्रकृति के तीनों गुण स्वभाविक तथा प्रकृति जन्य होते हैं अतः मनुष्य को प्रकृति गुणों के अनुसार चलना पड़ता है; मनुष्य प्रकृति का अनुगामी, अनुचर तथा दास होता है वह प्रकृति के विरुद्ध चल नहीं सकता है। यह[5] में कहा है। अतः जब प्रकृति के द्वारा मानव-सृष्टि के समस्त कर्म क्रियमाण होते हैं[6]और कार्य-कारण रूप-कर्तृत्व का क्रियमाण हेतु भी प्रकृति ही होती है[7]; तथा प्रकृति-जन्य सतोगुण, रजोगुण व तमोगुण से मानव बँधा हुआ है जिनके अनुसार ही वह समस्त कर्म चेष्टाएँ, आचरण व व्यवहार करता है तो इस विचार से कि सृष्टि का धारण-पोषण लोक-संग्रह तथा मनु के अनुसार राष्ट्र-संग्रह के हित में सुचारु रूप से होता रहे, संपूर्ण मानव-सृष्टि का, प्रकृति-जन्य गुण व स्वभाव के अनुसार, विश्लेषण करके मानव जाति को चार भिन्न-भिन्न भागों में विभक्त करके चतुर्वर्ण व्यवस्था स्थापित की गई। अतः यह वर्ण-विभाग किसी मनुष्य द्वारा नहीं किया गया है अपितु स्वयं परमेश्वर द्वारा गुण और कर्म के अनुसार किया गया है[8]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अध्याय 13 श्लोक 19
  2. क्षर
  3. अक्षर
  4. अध्याय 7 श्लोक 10-14; अध्याय 9 श्लोक 10 व 18; अध्याय 13 श्लोक 26; अध्याय 14 श्लोक 3 व 4
  5. अध्याय 3 श्लोक 33
  6. अध्याय 3 श्लोक 27
  7. अध्याय 13 श्लो. 20
  8. अध्याय 4 श्लोक 13)

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अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
- गीतोपदेश के पश्चात भागवत धर्म की स्थिति 1
- भूमिका 66
- महर्षि श्री वेदव्यास स्तवन 115
- श्री गणेश वन्दना 122
1. अर्जुन विषाद-योग 126
2. सांख्य-योग 171
3. कर्म-योग 284
4. ज्ञान-कर्म-संन्यास योग 370
5. कर्म-संन्यास योग 474
6. आत्म-संयम-योग 507
7. ज्ञान-विज्ञान-योग 569
8. अक्षर-ब्रह्म-योग 607
9. राजविद्या-राजगुह्य-योग 653
10. विभूति-योग 697
11. विश्वरूप-दर्शन-योग 752
12. भक्ति-योग 810
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विभाग-योग 841
14. गुणत्रय-विभाग-योग 883
15. पुरुषोत्तम-योग 918
16. दैवासुर-संपद-विभाग-योग 947
17. श्रद्धात्रय-विभाग-योग 982
18. मोक्ष-संन्यास-योग 1016
अंतिम पृष्ठ 1142

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