गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
मोक्ष-संन्यास-योग
।। सुख दुःख विवेचन।। सतोगुण, रजोगुण, तमोगुण आदि प्रकृति के गुणों के अनुसार सुख-दुःख के अधि- भौतिक-आध्यात्मिक तथ आधिदैविक तीन भेद किए गए हैं। आधिभौतिक सुखः- जिस सुख का अनुभव इन्द्रियों तथा इन्द्रिय-विषयों के संयोग से होता है उस सुख को “आधिभौतिक-सुख” कहते हैं। आधिभौतिक सुख को शारीरिक, सांसारिक सुख भी कहते हैं। जब सृष्टि के बाह्य-पदार्थों[1] का संयोग या स्पर्श इन्द्रियों से होता है तब शीतलता, उष्णता का तथा सुख व दुःख का अनुभव होता है। पंचतन्मात्राओं का संयोग, स्पर्श अथवा सम्पर्क जब इन्द्रियों से होता है तब मन में संवेदनाएँ उत्पन्न होती हैं और इन मानसिक संवेदनाओं पर ही सुख तथा दुःख आधारित रहता है क्योंकि जो संवेदना अनुकूल होती है वह “सुख” कहलाती है तथा प्रतिकूल संवेदना को दुःख कहते हैं।[2] जैसा कि अध्याय 3 श्लोक 34 व 40 में वर्णन किया गया है कि इन्द्रियों सहित इन्द्रियों के विषयों शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध में राग, द्वेष, काम, मोह, मद, स्पृहा, तृष्णा, क्रोध, अहंकार आदि निसर्गतः होते हैं; जिनके अधिष्ठान इन्द्रियों सहित मन व बुद्धि होते हैं। इससे स्पष्ट है कि आधिभौतिक सुख-दुःख इन्द्रियों पर आधारित हैं। अध्याय 13 में “क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ” का विवेचन करते समय “क्षेत्र अर्थात शरीर” का निर्माण 31 तत्त्वों द्वारा होना बताया गया है; इन 31 तत्त्वों में एक तत्त्व “सुख” भी है और एक तत्त्व “दुःख” भी है[3]। अतः स्पष्ट है कि सुख और दुःख भिन्न-भिन्न व प्रथक प्रथक वृत्तियाँ तथा संवेदनाएँ हैं; इन दोनों संवेदनाओं के गुण व लक्षण अध्याय 14 के श्लोक 6 व 7 में इस प्रकार बताए गए हैं कि “सुख सतोगुण का तथा दुःख रजोगुण का लक्षण होता है।” सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण प्रकृति के यह तीनों गुण न्यूनाधिक मात्रा में प्रकृतिजन्य स्वाभाविक व नैसर्गिक रूप में मानव में होते हैं। इन गुणों के अतिरेक व व्यतिरेक से तथा न्यूनाधिकतानुसार मनुष्य समस्त चेष्टाएँ, क्रियाएँ, कर्म अथवा आचरण करता है[4] और उसकी इच्छाएँ. वासनाएँ इन्हीं गुणों के अनुसार होती हैं।[5] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ मात्राओं
- ↑ अध्याय 2 श्लोक 14
- ↑ अध्याय 13 श्लोक 6
- ↑ अध्याय 13 श्लोक 20 व 21
- ↑ अध्याय 14 श्लोक 6 से 13 तक
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