गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण पृ. 107

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण


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इस अपमान से राजा द्रुपद अत्यन्त दुःखी एवं चिन्ताकुल रहता था और दिन रात प्रतिशोध लेने के उपाय सोचा करता था। द्रुपद ने यज्ञ द्वारा एक ऐसा वीर पराक्रमी पुत्र उत्पन्न करने का विचार किया जो द्रोण से बदला लेने में समर्थ हो। इस उद्देश्य की सिद्धि के लिए याज और उपयाज” नाम के ब्रह्म-ऋषियों से “श्रोताग्नि यज्ञ” कराया। याज्ञावधि पूर्ण होने पर इस यज्ञ की अग्नि से एक भीमाकृति कवचधारी, धनुष-बाण धारण किए देव सदृश कुमार उत्पन्न हुआ। यह कुमार “धृष्ट” अर्थात विपक्षियों की उन्नति को सहन न करने वाला; और “द्युम्न” अर्थात कवच-कुण्डलधारी होने के कारण “धुष्टद्युम्न” नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस प्रकार धृष्टद्युम्न का जन्म द्रोण से बदला लेने के लिए ही यज्ञ द्वारा हुआ था। अतः द्रोणाचार्य की पराजय अथवा मृत्यु का कारण दुर्योधन केवल इस धृष्टद्युम्न को ही समझता था।

द्रोणाचार्य ने राजा द्रुपद को प्रसन्न करने तथा वैमनस्य को मिटाने के अभिप्राय से धृष्टद्युम्न को अपने पास रखकर उच्चकोटि की युद्ध विद्या सिखा कर धनुर्वेद तथा अस्त्र-शस्त्र का प्रयोग एवं उपसंहार बताकर दक्ष एवं प्रवीण कर दिया। इसी कारण युद्ध के प्रथम दिन ही जब धृष्टद्युम्न ने पांडव सेना को व्यूहाकार में रचित किया जो दुर्योधन ने व्यंग भरे शब्दों में द्रोणाचार्य से कहा था कि - “व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता” अर्थात हे आचार्य, देख लो जिस शिष्य को आपने शिक्षित करके निपुण एवं दक्ष बनाया वही शिष्य आपके सामने आज व्यूह रचना करके खड़ा है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
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- भूमिका 66
- महर्षि श्री वेदव्यास स्तवन 115
- श्री गणेश वन्दना 122
1. अर्जुन विषाद-योग 126
2. सांख्य-योग 171
3. कर्म-योग 284
4. ज्ञान-कर्म-संन्यास योग 370
5. कर्म-संन्यास योग 474
6. आत्म-संयम-योग 507
7. ज्ञान-विज्ञान-योग 569
8. अक्षर-ब्रह्म-योग 607
9. राजविद्या-राजगुह्य-योग 653
10. विभूति-योग 697
11. विश्वरूप-दर्शन-योग 752
12. भक्ति-योग 810
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विभाग-योग 841
14. गुणत्रय-विभाग-योग 883
15. पुरुषोत्तम-योग 918
16. दैवासुर-संपद-विभाग-योग 947
17. श्रद्धात्रय-विभाग-योग 982
18. मोक्ष-संन्यास-योग 1016
अंतिम पृष्ठ 1142

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