गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
मोक्ष-संन्यास-योग
राजसी तथा तामसी धृति- श्लोक 34 व 35 में ऐसा वर्णन है कि जो व्यक्ति आसक्ति से कर्मावलिप्त तथा फलेच्छुक होकर यह कहते हैं कि स्वर्ग, वैभव, सुख, भोग-विलास, आदि समस्त कर्म-फल-काम्य-कर्म-काण्ड करने से मिलते हैं[1] उन लोगों की व्यवसायात्मक-बुद्धि समाधिस्थ नहीं होती; यह लोग अस्थिर बुद्धि वाले व भावनाहीन होते हैं [2]। कामासक्त तथा कर्म-फलेच्छुक व्यक्ति मायारूपा त्रिगुणात्मक प्रकृति के रजोगुण व तमोगुण से अभिभूत होते हैं और इन्द्रियों के वशीभूत होकर रूप-रसादि इन्द्रिय-विषयों में फसकर काम, क्रोध, राग-द्वेष, तृष्णा, स्पृहा, लोभ, मद, मोह, अहंकार आदि भावों से अभिभूत होकर पाप-कर्म करते रहते हैं क्योंकि यह निकृष्ट व कुत्सित पाप्मान भाव व भावनाएँ इन्द्रियों में तथा मन व बुद्धि में बैठकर मनुष्य को अपने वश में करके पथभ्रष्ट कर देते हैं [3]; रजोगुण और तमोगुण स्वभाव वाले लोगों के मन व बुद्धि स्थिर नहीं होते सदैव दौलापमान रहते हैं। सतोगुण का अभाव होने के कारण इनमें सात्त्विक गुण, सात्त्विक-बुद्धि, सात्त्विक-ज्ञान, सात्त्विक-धृति तथा सात्त्विक प्रकृति नहीं होते। ऐसी सात्त्विक वृत्ति से हीन तथा राजसी व तामसी वृत्ति से समन्वित आसुरी-वृत्ति को राजसी व तामसी घृति कहा गया है। [4] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ देखो अध्याय 2 श्लोक 42-44)
- ↑ अध्याय 2, श्लोक 66)
- ↑ अध्याय 3 श्लोक 34: 37 से 40
- ↑ अध्याय 7 श्लोक 15;- अध्याय 14 श्लोक 7, 8, 9, 12 व 13:- अध्याय 16 श्लोक 4 व 7 से 21।)
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