गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण पृ. 1066

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण

अध्याय-18
मोक्ष-संन्यास-योग
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राजसी तथा तामसी धृति-

श्लोक 34 व 35 में ऐसा वर्णन है कि जो व्यक्ति आसक्ति से कर्मावलिप्त तथा फलेच्छुक होकर यह कहते हैं कि स्वर्ग, वैभव, सुख, भोग-विलास, आदि समस्त कर्म-फल-काम्य-कर्म-काण्ड करने से मिलते हैं[1] उन लोगों की व्यवसायात्मक-बुद्धि समाधिस्थ नहीं होती; यह लोग अस्थिर बुद्धि वाले व भावनाहीन होते हैं [2]। कामासक्त तथा कर्म-फलेच्छुक व्यक्ति मायारूपा त्रिगुणात्मक प्रकृति के रजोगुण व तमोगुण से अभिभूत होते हैं और इन्द्रियों के वशीभूत होकर रूप-रसादि इन्द्रिय-विषयों में फसकर काम, क्रोध, राग-द्वेष, तृष्णा, स्पृहा, लोभ, मद, मोह, अहंकार आदि भावों से अभिभूत होकर पाप-कर्म करते रहते हैं क्योंकि यह निकृष्ट व कुत्सित पाप्मान भाव व भावनाएँ इन्द्रियों में तथा मन व बुद्धि में बैठकर मनुष्य को अपने वश में करके पथभ्रष्ट कर देते हैं [3];

रजोगुण और तमोगुण स्वभाव वाले लोगों के मन व बुद्धि स्थिर नहीं होते सदैव दौलापमान रहते हैं। सतोगुण का अभाव होने के कारण इनमें सात्त्विक गुण, सात्त्विक-बुद्धि, सात्त्विक-ज्ञान, सात्त्विक-धृति तथा सात्त्विक प्रकृति नहीं होते। ऐसी सात्त्विक वृत्ति से हीन तथा राजसी व तामसी वृत्ति से समन्वित आसुरी-वृत्ति को राजसी व तामसी घृति कहा गया है। [4]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. देखो अध्याय 2 श्लोक 42-44)
  2. अध्याय 2, श्लोक 66)
  3. अध्याय 3 श्लोक 34: 37 से 40
  4. अध्याय 7 श्लोक 15;- अध्याय 14 श्लोक 7, 8, 9, 12 व 13:- अध्याय 16 श्लोक 4 व 7 से 21।)

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अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
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1. अर्जुन विषाद-योग 126
2. सांख्य-योग 171
3. कर्म-योग 284
4. ज्ञान-कर्म-संन्यास योग 370
5. कर्म-संन्यास योग 474
6. आत्म-संयम-योग 507
7. ज्ञान-विज्ञान-योग 569
8. अक्षर-ब्रह्म-योग 607
9. राजविद्या-राजगुह्य-योग 653
10. विभूति-योग 697
11. विश्वरूप-दर्शन-योग 752
12. भक्ति-योग 810
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विभाग-योग 841
14. गुणत्रय-विभाग-योग 883
15. पुरुषोत्तम-योग 918
16. दैवासुर-संपद-विभाग-योग 947
17. श्रद्धात्रय-विभाग-योग 982
18. मोक्ष-संन्यास-योग 1016
अंतिम पृष्ठ 1142

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