गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
अध्याय-18
मोक्ष-संन्यास-योग
मोक्ष-संन्यास-योग
इसी प्रकार श्लोक 32- जो व्यक्ति अज्ञान-रूपी अन्धकार से आवृत्त होकर अधर्म को ही धर्म समझता हैं; प्रमाद कर्तव्य में; मोह सभी बातों में; अनिच्छा कर्मों में रखने वाला तथा भोग-विलास को ही सर्वस्व मानने वाला होता है; उसकी बुद्धि “तामसी-वृद्धि” होती है; यह तामसी बुद्धि आसुरी संपदा में पैदा होने वाले मनुष्यों की होती है; जिसका वर्णनः- अध्याय 2 श्लोक 66, 67; अध्याय 3 श्लोक 4, 6, 13, 27, 29; अध्याय 4 श्लोक 40; अध्याय 5 श्लोक 12; अध्याय 14 श्लोक 12, 23; अध्याय 16 श्लोक 4, 7 व 8 से 11; में किया गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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