गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण पृ. 1063

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण

अध्याय-18
मोक्ष-संन्यास-योग
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इसी प्रकार श्लोक 32- जो व्यक्ति अज्ञान-रूपी अन्धकार से आवृत्त होकर अधर्म को ही धर्म समझता हैं; प्रमाद कर्तव्य में; मोह सभी बातों में; अनिच्छा कर्मों में रखने वाला तथा भोग-विलास को ही सर्वस्व मानने वाला होता है; उसकी बुद्धि “तामसी-वृद्धि” होती है; यह तामसी बुद्धि आसुरी संपदा में पैदा होने वाले मनुष्यों की होती है; जिसका वर्णनः-

अध्याय 2 श्लोक 66, 67; अध्याय 3 श्लोक 4, 6, 13, 27, 29;

अध्याय 4 श्लोक 40; अध्याय 5 श्लोक 12;

अध्याय 14 श्लोक 12, 23; अध्याय 16 श्लोक 4, 7 व 8 से 11; में किया गया है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
- गीतोपदेश के पश्चात भागवत धर्म की स्थिति 1
- भूमिका 66
- महर्षि श्री वेदव्यास स्तवन 115
- श्री गणेश वन्दना 122
1. अर्जुन विषाद-योग 126
2. सांख्य-योग 171
3. कर्म-योग 284
4. ज्ञान-कर्म-संन्यास योग 370
5. कर्म-संन्यास योग 474
6. आत्म-संयम-योग 507
7. ज्ञान-विज्ञान-योग 569
8. अक्षर-ब्रह्म-योग 607
9. राजविद्या-राजगुह्य-योग 653
10. विभूति-योग 697
11. विश्वरूप-दर्शन-योग 752
12. भक्ति-योग 810
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विभाग-योग 841
14. गुणत्रय-विभाग-योग 883
15. पुरुषोत्तम-योग 918
16. दैवासुर-संपद-विभाग-योग 947
17. श्रद्धात्रय-विभाग-योग 982
18. मोक्ष-संन्यास-योग 1016
अंतिम पृष्ठ 1142

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