गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण पृ. 1056

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण

अध्याय-18
मोक्ष-संन्यास-योग
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।। श्लोक 26 से 28 का भावार्थ।।

सात्त्विक कर्ताः-

  • श्लोक 26- जो व्यक्ति आसक्ति-रहित, अहंकार-रहित व अपने कार्य की सिद्धि होने पर या असिद्ध रहने पर अपने मन में कोई विकार अर्थात हर्ष या शोक पैदा नहीं होने देता अपितु धृति व उत्साह से अपना कर्म करता रहता है वह पुरुष साजिश-कर्त्ता कहलाता है। सात्त्विक व्यक्ति के गुण लक्षण व स्वभाव का वर्णन निम्नलिखित अध्यायों में किया गया हैः-

अध्याय 2 श्लोक 64; अध्याय 3 श्लोक 7, 9, 18, 25, 27, 28;

अध्याय 4 श्लोक 18 से 23; अध्याय 5 श्लोक 7 से 11; 13, 20, 21;

अध्याय 6 श्लोक 1, 4, 7, 23; अध्याय 13 श्लोक 29;

अध्याय 14 श्लोक 22 से 25; अध्याय 16, श्लोक 1-3;

अध्याय 17 श्लोक 4।


राजस कर्त्ता-

  • श्लोक 27- इन्द्रिय विषयों में आसक्ति रखने वाला; कर्म-फल पाने की इच्छा करने वाला अर्थात काम्य-कर्म करने वाला; लोभ के कारण कर्म करने वाला; हिंसात्मक कर्म करने वाला; अशुचि अर्थात गर्हित कर्म करने वाला; कार्य सिद्धि पर हर्षित होने वाला तथा सिद्धि न मिलने पर शोक करने वाला व्यक्ति “राजस-कर्त्ता” कहलाता है। राजस कर्म व कर्त्ता के गुण, स्वभाव व लक्षणों का वर्णन गीता में निम्नलिखित अध्यायों में किया गया हैः-

अध्याय 2 श्लोक 43; अध्याय 3 श्लोक 13, 16, 27;

अध्याय 5 श्लोक 12; अध्याय 7 श्लोक 15, 27;

अध्याय 14 श्लोक 7, 12, 17; अध्याय 16 श्लोक 4, 7, 10, 11, 12;

अध्याय 17 श्लोक 4, 5, 6, 9, 12, 18 व 21।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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18. मोक्ष-संन्यास-योग 1016
अंतिम पृष्ठ 1142

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