गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण पृ. 1049

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण

अध्याय-18
मोक्ष-संन्यास-योग
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(25)
अनुबन्धं क्षयं हिंसाम्
अनवेक्ष्य च पौरुषम् ।
मोहादारभ्यते कर्म
यत्तत्तामसमुच्यते ॥

क्षय[1] हिंसा पौरुषाऽनुबन्ध[2] को
सोचे बिना केवल मोह से।
कर्मारम्भ किया जाता जो
कहते उसको तामस नाम से।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हानि या नाश
  2. पौरुषानुबन्ध- पौरुष अर्थात अपनी सामर्थ या शक्ति को; अनुबन्ध अर्थात होने वाले परिणाम को। अतः पौरुषाऽनुबन्ध का अर्थ यह होता है कि किसी कर्म को करने में कितनी सामर्थ या शक्ति की आवश्यकता है तथा इसको करने की सामर्थ भी है या नहीं और इसे करने में आगे भविष्य में क्या परिणाम होंगे।

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18. मोक्ष-संन्यास-योग 1016
अंतिम पृष्ठ 1142

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