गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण पृ. 1040

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण

अध्याय-18
मोक्ष-संन्यास-योग
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।। श्लोक 13 से 18 का भावार्थ।।

श्लोक 13 से 18 तक अहंकृत तथा नाहंकृत भाव का तुलनात्मक विवेचन है और अहम्-भाव त्याग को सच्चा संन्यास कहा गया है। कर्म के करने में-

(1) अधिष्ठान, कर्त्ता, करण, चेष्टा और दैव यह पाँच तो करण होते हैं;

(2) ज्ञान, ज्ञाता और ज्ञेय; यह तीन कर्म करने के प्रेरक होते हैं;

(3) कर्त्ता-कर्म-करण यह तीन कर्म-संग्रह होते हैं; और

(4) ज्ञान-कर्म तथा कर्त्ता के गुणों के अनुसार ही कर्म-भेद होता है।

कर्म करने की यह उपरोक्त कृर्तृत्व (gencies) है, इनके अभाव में कर्म का किया जाना संभव नहीं किन्तु अहंकृत बुद्धि वाला व्यक्ति स्वयं को ही कर्त्ता समझता है वह यह नहीं जान पाता कि वह तो केवल यन्त्रवत काम करता है। इसके विपरीत नाहंकृत-बुद्धि वाला व्यक्ति उपरोक्त पाँचों कारणों को, तीनों कर्म-प्रेरकों को तथा तीनों कर्म-संग्रहों को ही कर्म का कर्तृत्व मानता है। भगवान कृष्ण के कहने का व समझाने का तात्पर्य यह है कि नाहंकृत-बुद्धि वाला व्यक्ति यदि अहंकृत-बुद्धि वाले व्यक्ति को मार भी दे तो उसे मारने का पाप नहीं लगता। नाहंकृत भावना वाले मनुष्य के क्रिया-कलाप वायु-अग्निपानी की क्रियाओं के समान होते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
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- भूमिका 66
- महर्षि श्री वेदव्यास स्तवन 115
- श्री गणेश वन्दना 122
1. अर्जुन विषाद-योग 126
2. सांख्य-योग 171
3. कर्म-योग 284
4. ज्ञान-कर्म-संन्यास योग 370
5. कर्म-संन्यास योग 474
6. आत्म-संयम-योग 507
7. ज्ञान-विज्ञान-योग 569
8. अक्षर-ब्रह्म-योग 607
9. राजविद्या-राजगुह्य-योग 653
10. विभूति-योग 697
11. विश्वरूप-दर्शन-योग 752
12. भक्ति-योग 810
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विभाग-योग 841
14. गुणत्रय-विभाग-योग 883
15. पुरुषोत्तम-योग 918
16. दैवासुर-संपद-विभाग-योग 947
17. श्रद्धात्रय-विभाग-योग 982
18. मोक्ष-संन्यास-योग 1016
अंतिम पृष्ठ 1142

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