गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण पृ. 1034

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण

अध्याय-18
मोक्ष-संन्यास-योग
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विविध चेष्टाः-

नाना प्रकार की व प्रथक-प्रथक भाँति की जो भी चेष्टाएँ व क्रियाएँ इन्द्रियों द्वारा होती हैं उन समस्त चेष्टाओं का करण इन्द्रियाँ होती हैं [1]

दैवः-

संचित, प्रारब्ध और अनारब्ध यह तीन भेद कर्म के किए गए हैं। इसके अनुसार पूर्वजन्म में किए गए कर्मों का फल प्राणी को दूसरे जन्मों में प्राप्त होता रहता है; अर्थात जो कर्म प्राणी इस जन्म में या अन्य जन्मों में करता है उसके उन कर्मों का फल संचित अर्थात इकट्ठा होता रहता है। इन संचित कर्मों को अदृष्ट या दैव कहते हैं। अतः जो भी कर्म मनुष्य करता है वह पूर्व-कर्मों के संचित-फल या परिणामों के अनुसार करता है जिनका अधिदैव परम ब्रह्म परमेश्वर होता है। अतः संचित कर्म, प्रारब्ध, भाग्य या अदृष्ट को “दैव” कहते हैं।

जिन कर्म-फलों का भोगना आरम्भ हो जाता है उसे “प्रारब्ध” कहते हैं; यही क्रियमाण-कर्म होते हैं; तथा जिन कर्मों का भोगना आरम्भ नहीं हुआ है उनको “अनारब्ध” कहते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अध्याय 5 श्लोक 8 व 9

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गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
- गीतोपदेश के पश्चात भागवत धर्म की स्थिति 1
- भूमिका 66
- महर्षि श्री वेदव्यास स्तवन 115
- श्री गणेश वन्दना 122
1. अर्जुन विषाद-योग 126
2. सांख्य-योग 171
3. कर्म-योग 284
4. ज्ञान-कर्म-संन्यास योग 370
5. कर्म-संन्यास योग 474
6. आत्म-संयम-योग 507
7. ज्ञान-विज्ञान-योग 569
8. अक्षर-ब्रह्म-योग 607
9. राजविद्या-राजगुह्य-योग 653
10. विभूति-योग 697
11. विश्वरूप-दर्शन-योग 752
12. भक्ति-योग 810
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विभाग-योग 841
14. गुणत्रय-विभाग-योग 883
15. पुरुषोत्तम-योग 918
16. दैवासुर-संपद-विभाग-योग 947
17. श्रद्धात्रय-विभाग-योग 982
18. मोक्ष-संन्यास-योग 1016
अंतिम पृष्ठ 1142

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