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गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
मोक्ष-संन्यास-योग
विविध चेष्टाः-नाना प्रकार की व प्रथक-प्रथक भाँति की जो भी चेष्टाएँ व क्रियाएँ इन्द्रियों द्वारा होती हैं उन समस्त चेष्टाओं का करण इन्द्रियाँ होती हैं [1]। दैवः-संचित, प्रारब्ध और अनारब्ध यह तीन भेद कर्म के किए गए हैं। इसके अनुसार पूर्वजन्म में किए गए कर्मों का फल प्राणी को दूसरे जन्मों में प्राप्त होता रहता है; अर्थात जो कर्म प्राणी इस जन्म में या अन्य जन्मों में करता है उसके उन कर्मों का फल संचित अर्थात इकट्ठा होता रहता है। इन संचित कर्मों को अदृष्ट या दैव कहते हैं। अतः जो भी कर्म मनुष्य करता है वह पूर्व-कर्मों के संचित-फल या परिणामों के अनुसार करता है जिनका अधिदैव परम ब्रह्म परमेश्वर होता है। अतः संचित कर्म, प्रारब्ध, भाग्य या अदृष्ट को “दैव” कहते हैं। जिन कर्म-फलों का भोगना आरम्भ हो जाता है उसे “प्रारब्ध” कहते हैं; यही क्रियमाण-कर्म होते हैं; तथा जिन कर्मों का भोगना आरम्भ नहीं हुआ है उनको “अनारब्ध” कहते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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