गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण पृ. 1032

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण

अध्याय-18
मोक्ष-संन्यास-योग
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अधिष्ठानः-

अधिष्ठान कहते हैं रहने की जगह को या स्थान को। अतः अखिल विश्व, समस्त जड़-चेतन भूत पदार्थ, त्रिगुणात्मक प्रकृति, मन-बुद्धि सहित ज्ञानेन्द्रियाँ व इनके विषय तथा इन विषयों से उत्पन्न होने वाले राग-द्वेष, मद, मोह, क्रोध, अहंकार, आशा, तृष्णा, वासना, कामना आदि सब ही अधिष्ठान हैं। कौन किसका अधिष्ठान है इसका विवेचन गीता में स्थान-स्थान पर इस प्रकार किया गया हैः-

(क) सृष्टि तथा यज्ञ-कर्म में परम ब्रह्म परमेश्वर अधिष्ठित रहता है; इसही कारण यह अधिभूत तथा अधियज्ञ है। देखो अध्याय 3 श्लोक 15 व 30; अध्याय 7 श्लोक 7 से 12 व 30; अध्याय 9 श्लोक 4, 10 व 18; अध्याय 10 श्लोक 20, 29, 41 व 42; अध्याय 13 श्लोक 19, 26 व 33; अध्याय 14 श्लोक 3, 4 व 27।

(ख) परा व अपरा प्रकृति भी ब्रह्मदेव का अधिष्ठान है। परम ब्रह्म से अधिष्ठित त्रिगुणात्मक प्रकृति द्वारा ही सृष्टि की उत्पत्ति होती है यह वर्णन अध्याय 7 श्लोक 4 से 7 में; अध्याय 8 श्लोक 22 में; अध्याय 9 श्लोक 4, 10 व 18 में; अध्याय 10 श्लोक 4 व 5 में है।

(ग) राग-द्वेष, काम-क्रोध, मद-लोभ, अंहकार आदि भावनाओं के अधिष्ठान मन-बुद्धि व ज्ञानेन्दियाँ हैं। यह अध्याय 3 के श्लोक 40 में बताया गया है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
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2. सांख्य-योग 171
3. कर्म-योग 284
4. ज्ञान-कर्म-संन्यास योग 370
5. कर्म-संन्यास योग 474
6. आत्म-संयम-योग 507
7. ज्ञान-विज्ञान-योग 569
8. अक्षर-ब्रह्म-योग 607
9. राजविद्या-राजगुह्य-योग 653
10. विभूति-योग 697
11. विश्वरूप-दर्शन-योग 752
12. भक्ति-योग 810
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विभाग-योग 841
14. गुणत्रय-विभाग-योग 883
15. पुरुषोत्तम-योग 918
16. दैवासुर-संपद-विभाग-योग 947
17. श्रद्धात्रय-विभाग-योग 982
18. मोक्ष-संन्यास-योग 1016
अंतिम पृष्ठ 1142

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