गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
मोक्ष-संन्यास-योग
अधिष्ठानः- अधिष्ठान कहते हैं रहने की जगह को या स्थान को। अतः अखिल विश्व, समस्त जड़-चेतन भूत पदार्थ, त्रिगुणात्मक प्रकृति, मन-बुद्धि सहित ज्ञानेन्द्रियाँ व इनके विषय तथा इन विषयों से उत्पन्न होने वाले राग-द्वेष, मद, मोह, क्रोध, अहंकार, आशा, तृष्णा, वासना, कामना आदि सब ही अधिष्ठान हैं। कौन किसका अधिष्ठान है इसका विवेचन गीता में स्थान-स्थान पर इस प्रकार किया गया हैः- (क) सृष्टि तथा यज्ञ-कर्म में परम ब्रह्म परमेश्वर अधिष्ठित रहता है; इसही कारण यह अधिभूत तथा अधियज्ञ है। देखो अध्याय 3 श्लोक 15 व 30; अध्याय 7 श्लोक 7 से 12 व 30; अध्याय 9 श्लोक 4, 10 व 18; अध्याय 10 श्लोक 20, 29, 41 व 42; अध्याय 13 श्लोक 19, 26 व 33; अध्याय 14 श्लोक 3, 4 व 27। (ख) परा व अपरा प्रकृति भी ब्रह्मदेव का अधिष्ठान है। परम ब्रह्म से अधिष्ठित त्रिगुणात्मक प्रकृति द्वारा ही सृष्टि की उत्पत्ति होती है यह वर्णन अध्याय 7 श्लोक 4 से 7 में; अध्याय 8 श्लोक 22 में; अध्याय 9 श्लोक 4, 10 व 18 में; अध्याय 10 श्लोक 4 व 5 में है। (ग) राग-द्वेष, काम-क्रोध, मद-लोभ, अंहकार आदि भावनाओं के अधिष्ठान मन-बुद्धि व ज्ञानेन्दियाँ हैं। यह अध्याय 3 के श्लोक 40 में बताया गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज