गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
अध्याय-18
मोक्ष-संन्यास-योग
मोक्ष-संन्यास-योग
(7) |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ शास्त्रों द्वारा जो कर्म करणीय निर्धारित कर दिए हैं उनको “नियत-कर्म” कहा है। चतुर्वर्ण व्यवस्था में जो कर्म प्रत्येक वर्ण के नियत व निर्धारित कर दिए गए हैं वह कर्तव्य-कर्म प्रत्येक वर्ण के लिए यज्ञ व तप करने के समान होते हैं अतः एक क्षत्रिय के लिए युद्ध करना भी यज्ञ व तप करने के समान है जिसे करना ही उचित है न करना अनुचित है। अध्याय 3 श्लोक 10 व 15 में यह समझाया गया है कि यज्ञ-कर्म व सृष्टि की रचना साथ-साथ हुई है अतः यह संसार कर्म-भूमि है, सृष्टि और कर्म का सह-अस्तित्व है इस कारण कर्म को न तो कोई त्याग सकता है और न त्यागना उचित ही है।
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