गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण पृ. 1017

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण

अध्याय-18
मोक्ष-संन्यास-योग
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।। संन्यास तथा त्याग की व्याख्या।।
(2)

श्रीभगवान उवाच-

काम्यानां कर्मणां न्यासं
सन्न्यासं कवयो विदु: ।
सर्वकर्मफलत्यागं
प्राहुस्त्यागं विचक्षणा:

भगवान कृष्ण ने कहा-

काम्य-कर्म[1] परित्याग को
संन्यास समझते ज्ञानी हैं।
सर्वकर्म-फल त्याग को
कहते त्याग विचारशील हैं।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. स्त्री-पुत्र-धन के लिए तथा रोग-दुःख-व्याधि के निवारण या निवृत्ति के लिए या किसी इच्छा वासना की पूर्ति के लिए जो यज्ञ-दान-तप-उपवास आदि किए जाते हैं उनको “काव्य-कर्म” कहा है। अतः स्वार्थ हित कर्म “कामा-कर्म” होते हैं।

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17. श्रद्धात्रय-विभाग-योग 982
18. मोक्ष-संन्यास-योग 1016
अंतिम पृष्ठ 1142

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