गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
पूर्वाभास
महाभारत युद्ध से होने वाले अनन्तरीय परिणामों पर विचार करके ही अर्जुन ने भगवान कृष्ण से कहा था कि;- (क) “देखता न श्रेय अतः कुछ भी; स्वजन वध-कर इस युद्ध में भी।”[1] (ख) “कर नहीं सकते सुख की कामना; मारकर माधव! स्वजन स्वकीय को।’’ [2] (ग) “कुल के क्षय तथा मित्र-दोह से; घातक दोष व पाप जो होते। लोभ-वश नष्ट-धी कौरवों से; कल्पित राज्य-मोह से न होते।। [3] और उसे युद्ध से ही नहीं बल्कि संसार से ही निर्वेद व विराग हो गया था और “रुधिर-प्रदिग्ध भोगों को” भोगने के बजाए उसने संन्यास ग्रहण कर भिक्षा द्वारा जीवन निर्वाह करना ही उत्तम व श्रेष्ठ समझा था। किन्तु अध्याय 17 तक जब अर्जुन ने देखा कि भगवान कृष्ण ने चातुर्यवर्ण व्यवस्था के चौथे संन्यास आश्रम का नाम तक नहीं लिया है और स्थान-स्थान पर जो त्याग व संन्यास शब्दों का प्रयोग किया है वह केवल कर्म-योग-मार्ग के अर्थ में किया है तो त्याग व संन्यास का सही व यथार्थ अर्थ जानने के लिए अर्जुन प्रश्न करता है और उसके उत्तर में भगवान कृष्ण ने जो अर्थ त्याग व संन्यास का बताया है वही अध्याय 18 का प्रतिपाद्य विषय है और संपूर्ण गीतोपदेश का सार व उपसंहार है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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