गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण पृ. 1015

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण

अध्याय-18
पूर्वाभास
Prev.png

महाभारत युद्ध से होने वाले अनन्तरीय परिणामों पर विचार करके ही अर्जुन ने भगवान कृष्ण से कहा था कि;-

(क) “देखता न श्रेय अतः कुछ भी; स्वजन वध-कर इस युद्ध में भी।”[1]

(ख) “कर नहीं सकते सुख की कामना; मारकर माधव! स्वजन स्वकीय को।’’ [2]

(ग) “कुल के क्षय तथा मित्र-दोह से; घातक दोष व पाप जो होते।

लोभ-वश नष्ट-धी कौरवों से; कल्पित राज्य-मोह से न होते।। [3] और उसे युद्ध से ही नहीं बल्कि संसार से ही निर्वेद व विराग हो गया था और “रुधिर-प्रदिग्ध भोगों को” भोगने के बजाए उसने संन्यास ग्रहण कर भिक्षा द्वारा जीवन निर्वाह करना ही उत्तम व श्रेष्ठ समझा था।

किन्तु अध्याय 17 तक जब अर्जुन ने देखा कि भगवान कृष्ण ने चातुर्यवर्ण व्यवस्था के चौथे संन्यास आश्रम का नाम तक नहीं लिया है और स्थान-स्थान पर जो त्याग व संन्यास शब्दों का प्रयोग किया है वह केवल कर्म-योग-मार्ग के अर्थ में किया है तो त्याग व संन्यास का सही व यथार्थ अर्थ जानने के लिए अर्जुन प्रश्न करता है और उसके उत्तर में भगवान कृष्ण ने जो अर्थ त्याग व संन्यास का बताया है वही अध्याय 18 का प्रतिपाद्य विषय है और संपूर्ण गीतोपदेश का सार व उपसंहार है।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अध्याय 1।31
  2. अध्याय 1।37
  3. अध्याय 1। 38

संबंधित लेख

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
- गीतोपदेश के पश्चात भागवत धर्म की स्थिति 1
- भूमिका 66
- महर्षि श्री वेदव्यास स्तवन 115
- श्री गणेश वन्दना 122
1. अर्जुन विषाद-योग 126
2. सांख्य-योग 171
3. कर्म-योग 284
4. ज्ञान-कर्म-संन्यास योग 370
5. कर्म-संन्यास योग 474
6. आत्म-संयम-योग 507
7. ज्ञान-विज्ञान-योग 569
8. अक्षर-ब्रह्म-योग 607
9. राजविद्या-राजगुह्य-योग 653
10. विभूति-योग 697
11. विश्वरूप-दर्शन-योग 752
12. भक्ति-योग 810
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विभाग-योग 841
14. गुणत्रय-विभाग-योग 883
15. पुरुषोत्तम-योग 918
16. दैवासुर-संपद-विभाग-योग 947
17. श्रद्धात्रय-विभाग-योग 982
18. मोक्ष-संन्यास-योग 1016
अंतिम पृष्ठ 1142

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः