गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण पृ. 1014

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण

अध्याय-18
पूर्वाभास
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समस्त कर्मों को ब्रह्मार्पण या कृष्णार्पण करके भगवत परायण हो जाने को भी अध्याय 9 श्लोक 28 व 34 में सर्वश्रेष्ठ त्याग या संन्यास बताया गया है।

अध्याय 2 श्लोक 45, 52 व 53 में यह संकेत मिलता है कि अर्जुन श्रुति-स्मृति, वेद शास्त्र, धर्म शास्त्र, पुराण, उपनिषद, सांख्य शास्त्र आदि का ज्ञाता था किन्तु वह कर्म-योग-मार्ग में प्रयुक्त “त्याग” शब्द का व सांख्य-मार्ग में प्रयुक्त “संन्यास” शब्द का अर्थ सही-सही यथार्थ रूप से नहीं जानता था और सांख्यमत में प्रयुक्त संन्यास शब्द का अर्थ कर्म का स्वरूपः त्याग कर देना ही समझता था। अतः अध्याय 5 श्लोक 2 में “कर्म-संन्यास से कर्म-योग ही, होता विशिष्ठ किन्तु सदा ही” कहकर श्लोक 3 में नित्य संन्यासी की व्याख्या इस प्रकार की है किः-

“नित्य संन्यासी जानो उसी को; नहीं द्वेष आकांक्षा जिसको”

इस प्रकार कर्म का स्वरूपतः त्याग करना असंभव बताकर यह समझाया है कि कर्म-योग-मार्ग में कर्म का त्याग नहीं किया जाता मनुष्य संसार में रहकर कर्म करता रहता है किन्तु उनमें फलाशा नहीं रखता न उनमें लिप्त होता है इस कारण कर्म-योग-मार्ग सुगम है सुसाध्य है तथा श्रेष्ठ है और जो राग-द्वेषादि द्वन्द्वों से रहित तथा आकांक्षा रहित होता है वही पुरुष नित्य संन्यासी समझा जाने योग्य होता है। अध्याय 5 श्लोक 4 में सांख्य को और कर्म योग को एक ही बताकर इनमें भेद समझने वालों को नादान व मूर्ख कहा है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
- गीतोपदेश के पश्चात भागवत धर्म की स्थिति 1
- भूमिका 66
- महर्षि श्री वेदव्यास स्तवन 115
- श्री गणेश वन्दना 122
1. अर्जुन विषाद-योग 126
2. सांख्य-योग 171
3. कर्म-योग 284
4. ज्ञान-कर्म-संन्यास योग 370
5. कर्म-संन्यास योग 474
6. आत्म-संयम-योग 507
7. ज्ञान-विज्ञान-योग 569
8. अक्षर-ब्रह्म-योग 607
9. राजविद्या-राजगुह्य-योग 653
10. विभूति-योग 697
11. विश्वरूप-दर्शन-योग 752
12. भक्ति-योग 810
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विभाग-योग 841
14. गुणत्रय-विभाग-योग 883
15. पुरुषोत्तम-योग 918
16. दैवासुर-संपद-विभाग-योग 947
17. श्रद्धात्रय-विभाग-योग 982
18. मोक्ष-संन्यास-योग 1016
अंतिम पृष्ठ 1142

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