गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
पूर्वाभास
समस्त कर्मों को ब्रह्मार्पण या कृष्णार्पण करके भगवत परायण हो जाने को भी अध्याय 9 श्लोक 28 व 34 में सर्वश्रेष्ठ त्याग या संन्यास बताया गया है। अध्याय 2 श्लोक 45, 52 व 53 में यह संकेत मिलता है कि अर्जुन श्रुति-स्मृति, वेद शास्त्र, धर्म शास्त्र, पुराण, उपनिषद, सांख्य शास्त्र आदि का ज्ञाता था किन्तु वह कर्म-योग-मार्ग में प्रयुक्त “त्याग” शब्द का व सांख्य-मार्ग में प्रयुक्त “संन्यास” शब्द का अर्थ सही-सही यथार्थ रूप से नहीं जानता था और सांख्यमत में प्रयुक्त संन्यास शब्द का अर्थ कर्म का स्वरूपः त्याग कर देना ही समझता था। अतः अध्याय 5 श्लोक 2 में “कर्म-संन्यास से कर्म-योग ही, होता विशिष्ठ किन्तु सदा ही” कहकर श्लोक 3 में नित्य संन्यासी की व्याख्या इस प्रकार की है किः- इस प्रकार कर्म का स्वरूपतः त्याग करना असंभव बताकर यह समझाया है कि कर्म-योग-मार्ग में कर्म का त्याग नहीं किया जाता मनुष्य संसार में रहकर कर्म करता रहता है किन्तु उनमें फलाशा नहीं रखता न उनमें लिप्त होता है इस कारण कर्म-योग-मार्ग सुगम है सुसाध्य है तथा श्रेष्ठ है और जो राग-द्वेषादि द्वन्द्वों से रहित तथा आकांक्षा रहित होता है वही पुरुष नित्य संन्यासी समझा जाने योग्य होता है। अध्याय 5 श्लोक 4 में सांख्य को और कर्म योग को एक ही बताकर इनमें भेद समझने वालों को नादान व मूर्ख कहा है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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