गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण
पूर्वाभास
अध्याय 3 से अध्याय 17 तक स्थान-स्थान पर प्रसंगानुसार भगवान कृष्ण ने “त्याग और संन्यास” शब्दों का प्रयोग किया है तथा यह समझाया है कि वेदान्त में या सांख्य शास्त्र में इन दोनों शब्दों का अर्थ एक ही है एक ही अर्थ व आशय से यह प्रयुक्त किए गए हैं। भगवान कृष्ण द्वारा उपदिष्ट व प्रतिपादित कर्म-योग-मार्ग या कापिल सांख्य द्वारा प्रतिपादित संन्यास-मार्ग में कोई वैमत्य नहीं है। कर्म करने के जिस कौशल को भगवान कृष्ण ने आसक्ति विरहित, फलेच्छा-रहित, निःसंग व निष्काम “कर्म-योग-मार्ग” कहा है वही साँख्य-शास्त्र का “संन्यास-मार्ग” है। कापिल सांख्य-शास्त्र में जिसे “संन्यास व संन्यासी” कहा है उसका अर्थ, परिभाषा व स्पष्टीकरण भगवान कृष्ण ने गीता में करके यही समझाया है कि सांख्य-मत में “संन्यास” से तात्पर्य कर्म का स्वरूपतः त्याग करके संसार को छोड़ निर्जन वन में जा बैठने से नहीं है क्योंकि कर्म किए बिना कोई भी प्राणी एकक्षण भी नहीं रह सकता नित्य नैमित्तिक कर्म उसे करने ही पड़ते हैं। अतः जिस अर्थ में “त्याग” कर्म-योग-मार्ग में प्रयुक्त हुआ है उस ही अर्थ में “संन्यास” शब्द सांख्य शास्त्र में प्रयुक्त हुआ है। त्याग से तात्पर्य कर्म-योग-मार्ग में फलाशा-विरहित निःसंग निर्लिप्त अनासक्त भाव से कर्म करते रहने का है न कि कर्म का स्वरूपाः त्याग करके निष्कर्म हो बैठ जाने से। यही अर्थ है “संन्यास” का सांख्य-शास्त्र में है। अतः “त्याग” और “संन्यास” दोनों शब्द पर्यायवाची व समानार्थक हैं। निष्कर्ष रूपेण जो व्यक्ति कर्म-फलासक्ति त्यागकर नित्य-तृप्त, आशा-रहित, निराश्रित, संतोषी, सर्वारम्भ परित्यागी, सर्व संगों से विमुक्त समदर्शी व समभाव-बुद्धि वाला होकर कर्म को अकर्म में परिवर्तित कर देता है वही “सच्चा त्यागी या सच्चा संन्यासी” होता है। यह विवेचन:- अध्याय 4 श्लोक 18 से 23 में; अध्याय 5 श्लोक 3 में; तथा अध्याय 6 श्लोक 1, 2 व 23 में किया गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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