गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण पृ. 1005

गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण

अध्याय-17
श्रद्धात्रय-विभाग-योग
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(21)

यत्तु प्रत्युपकारार्थं
फलमुद्दिश्य वा पुन:।
दीयते च परिक्लिष्टं
तद्दानं राजसं स्मृतम् ॥

प्रत्युपकार[1] ही के ध्येय से
अथवा फल के ही उद्देश से।
दिया यदि जाता क्लिष्ट मन[2] से
दान कहलाता राजस नाम से।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. उपकार के बदले में उपकार
  2. मन मोसकर या कुढ़कर

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अंतिम पृष्ठ 1142

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