गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 99

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नौवां अध्याय
मानव-सेवारूपी राजविद्या: समर्पणयोग
47 पाप का भय नहीं


29. सब जगह प्रभु विराजमान हैं, ऐसी भावना चित्त में जम जाये, तो फिर एक - दूसरे के साथ हम कैसा व्यवहार करें, यह नीति-शास्त्र हमारे अंतः करण में अपने-आप स्फुरित होने लगेगा। शास्त्र पढ़ने की जरूरत ही नहीं रहेगी। तब सब दोष दूर हो जायेंगे, पाप भाग जायेंगे, दुरितों का तिमिर हट जायेगा।

तुकाराम ने कहा है-

चाल केलासी मोकळा। बोल विठ्ठल वेळोवेळां।
तज पाप चि नाहीं ऐसें। नाम घेतां जवळीं वसे॥

-‘चल तुझे छुट्टी देता हूँ हर श्वास पर विठ्ठल का नाम ले। तेरा ऐसा एक भी पाप नहीं है‚ जो नाम लेने पर भी तेरे पास बना रहे। अच्छा चलो तुम्हें पाप करने की छुट्टीǃ मैं देखता हूँ कि तुम पाप करने से थकते हो या हरिनाम पाप जलाने से थकता है। ऐसा कौन-सा जबर्दस्त और मगरूर पाप है, जो हरि-नाम के सामने टिक सकता है ? करीं तुजसी करवती- ‘करो चाहे जितने पाप।’ तुमसे जितने पाप बन सकें, करो। तुम्हें खुली छूट है। होने दो हरि-नाम की और तुम्हारे पापों की कुश्ती! अरे, इस हरि-नाम में इस जन्म के ही नहीं, अनंत जन्मों के पाप पल भर में भस्म कर डालने का सामर्थ्य है। गुफा में अनंत युग का अंधकार भरा हो, तो भी एक दियासलाई जलाते ही वह भाग जाता है। वह अंधकार प्रकाश बन जाता है। पाप जितने पुराने, उतने ही जल्दी वे नष्ट होते हैं, क्योंकि वे करने को ही होते हैं। पुरानी लकड़ियों को राख होते देर नहीं लगती।

30. राम-नाम के नजदीक पाप ठहर ही नहीं सकता। बच्चे कहते हैं कि राम कहते ही भूत भागता है। हम बचपन में रात को श्मशान हो आते थे। श्मशान में जाकर मेख ठोंक कर आने की शर्त लगाया करते। रात को सांप भी रहते, कांटे भी रहते, बाहर चारों ओर अंधकार रहता, फिर भी कुछ नहीं लगता। भूत-कभी दिखायी नहीं दिया। कल्पना के ही तो भूत! फिर दीखने क्यों लगें? दस वर्ष के बच्चे में रात को श्मशान में जा आने का सामर्थ्य कहाँ से आ गया? राम-नाम से। वह सामर्थ्य सत्यरूप परमात्मा का था। यदि यह भावना हो कि पमात्मा मेरे पास है, तो सारी दुनिया उलट पड़े, तो भी हरि का दास भयभीत नहीं होगा। उसे कौन सा राक्षस खा सकता है? भले ही राक्षस उसका शरीर खाकर पचा डाले, पर उसे सत्य पचने वाला नहीं। सत्य को पचा लेने की शक्ति संसार में कहीं नहीं। ईश्वर नाम के सामने पाप टिक नहीं सकता। इसलिए ईश्वर से जी लगाओ। उसकी कृपा प्राप्त कर लो। सब कर्म उसे अर्पण कर दो। उसी के हो जाओ। अपने सब कर्मों का नैवेद्य प्रभु को अर्पण करना है हम भावना को उत्तरोत्तर अधिक उत्कृष्ट बनाते चले जाओगे तो क्षुद्र जीवन दिव्य बन जायेगा, मलिन जीवन सुंदर बन जायेगा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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