गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 96

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नौवां अध्याय
मानव-सेवारूपी राजविद्या: समर्पणयोग
46. सारा जीवन हरिमय हो सकता है

26. सारांश यह कि जो कुछ भले-बुरे कर्म हमसे बन पड़े, उन सबको ईश्वरार्पण कर देने से उनमें कुछ और ही सामर्थ्य उत्पन्न हो जाता है। ज्वार का दाना यों कुछ पीलापन और लाली लिये हुए होता है। पर उसी को भूनने से कितनी बढ़िया फूली बन जाती है। साफ सफेद, अठपहलू व्यवस्थित और शानदार वह फूली उस दाने के पास रखकर तो देखो! कितना अंतर है! मगर वह फूली है, उस दाने की ही, इसमें संदेह नहीं। यह अंतर केवल अग्नि के कारण हो गया।

इसी तरह उस कड़े दाने को चक्की में डालकर पीसो, तो उसका मुलायम आटा बन जायेगा। अग्नि संपर्क से फूली बन गयी, चक्की में डालने से मुलायम आटा बन गया। इसी तरह हमारी किसी छोटी-सी क्रिया पर हरिस्मरणरूपी संस्कार करने से वह अपूर्व हो जायेगी। भावना से मोल बढ़ जाता है। वह गुड़हल का मामूली-सा फूल, बेल की पंत्तियां, तुलसी की मंजरी और दूब के तिनके, इन्हें तुच्छ मत मानो- तुका म्हणे चवी आलें। जें कां मिश्रित विठ्ठलें- ‘तुका कहता है कि जो भी राम-मिश्रित हो जाता है, उसमें स्वाद आ जाता है।’ प्रत्येक बात में भगवान को मिला दो और फिर अनुभव करो, इस रामरूपी मसाले के बराबर दूसरा कोई मसाला है क्या? इस दिव्य मसाले से बढ़कर तुम दूसरा कौन-सा मसाला लाओगे? यही ईश्वर रूपी मसाला अपनी प्रत्येक क्रिया में मिला दो, फिर सब कुछ सुंदर और रुचिकर हो जायेगा।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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