गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 95

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नौवां अध्याय
मानव-सेवारूपी राजविद्या: समर्पणयोग
46. सारा जीवन हरिमय हो सकता है


24, सचमुच संसार में कोई दुष्ट है या नहीं, इसका निर्णय आखिर कौन करे? कोई असली दुष्ट आ जाये तो भी ऐसी भावना करो कि यह परमात्मा है। वह दुष्ट हो भी, तो संत बन जायेगा। तो क्या झूठ-मूठ यह भावना करें? मैं कहता हूं, किसको पता है कि वह दुष्ट ही है? कुछ लोग कहते हैं कि सज्जन लोग खुद अच्छे होते हैं, इसलिए उन्हें सब कुछ अच्छा दिखायी पड़ता है, किंतु वास्तव में ऐसा नहीं होता। तो फिर तुम्हें जैसा दिखायी देता है, उसी को सच मान लें? सृष्टि का सम्यक् ज्ञान होने का साधन मानो अकेले दृष्टों के ही पास है। यह क्यों न कहें कि सृष्टि तो अच्छी है, पर तुम दुष्ट हो, इसलिए वह तुम्हें दुष्ट दिखायी देती है। देखो, सृष्टि तो आईना है। तुम जैसे होगे, वैसा ही सामने की सृष्टि में तुम्हारा प्रतिबिंब दिखायी देगा। जैसी तुम्हारी दृष्टि, वैसा ही सृष्टि का रूप? इसलिए ऐसी कल्पना करो कि यह सृष्टि अच्छी है, पवित्र है। अपनी मामूली क्रिया में भी ऐसी भावना का संचार करो। फिर देखो कि क्या चमत्कार होता है। भगवान यही बात समझा देना चाहते हैं-

यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत्तपस्यसि कौंतेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्॥

-‘तुम जो कुछ करो, सब ज्यों-का-त्यों भगवान को अर्पण कर दो।’

25. मेरी मां बचपन में एक कहानी सुनाया करती थी। बात मजेदार है, परंतु उसका रहस्य बहुत मूल्यवान है। एक स्त्री थी। उसका यह निश्चय था कि जो कुछ करूंगी, कृष्णार्पण कर दूंगी। चौका लीपने के बाद बची हुई गोबर-मिट्टी का गोला बनाकर बाहर फेंकती और कह देती- ‘कृष्णार्पणमस्तु।’ होता क्या था कि वह गोबर का गोला वहाँ से उठता और मंदिर में भगवान की मूर्ति के मुंह पर जा चिपकता। पुजारी बेचारा मूर्ति को धो-धोकर थक गया, पर करे क्या? अंत में मालूम हुआ कि यह करामात उस स्त्री की थी। जब तक वह स्त्री जीवित है, तब तक मूर्ति कभी साफ रह ही नहीं सकती। एक दिन वह स्त्री बीमार पड़ गयी। मरण की अंतिम घड़ी निकट आ गयी। उसने मरण को भी कृष्णार्पण कर दिया। उसी समय मंदिर की मूर्ति के टुकड़े-टुकड़े हो गये। मूर्ति टूटकर गिर पड़ी। स्वर्ग से विमान आया स्त्री को लेने के लिए। विमान को भी कृष्णार्पण कर दिया। विमान जाकर मंदिर से टकराया और वह भी टुकड़े-टुकड़े हो गया। स्वर्ग श्रीकृष्ण के ध्यान के सामने व्यर्थ है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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