नौवां अध्याय
मानव-सेवारूपी राजविद्या: समर्पणयोग
46. सारा जीवन हरिमय हो सकता है
यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्। -‘तुम जो कुछ करो, सब ज्यों-का-त्यों भगवान को अर्पण कर दो।’ 25. मेरी मां बचपन में एक कहानी सुनाया करती थी। बात मजेदार है, परंतु उसका रहस्य बहुत मूल्यवान है। एक स्त्री थी। उसका यह निश्चय था कि जो कुछ करूंगी, कृष्णार्पण कर दूंगी। चौका लीपने के बाद बची हुई गोबर-मिट्टी का गोला बनाकर बाहर फेंकती और कह देती- ‘कृष्णार्पणमस्तु।’ होता क्या था कि वह गोबर का गोला वहाँ से उठता और मंदिर में भगवान की मूर्ति के मुंह पर जा चिपकता। पुजारी बेचारा मूर्ति को धो-धोकर थक गया, पर करे क्या? अंत में मालूम हुआ कि यह करामात उस स्त्री की थी। जब तक वह स्त्री जीवित है, तब तक मूर्ति कभी साफ रह ही नहीं सकती। एक दिन वह स्त्री बीमार पड़ गयी। मरण की अंतिम घड़ी निकट आ गयी। उसने मरण को भी कृष्णार्पण कर दिया। उसी समय मंदिर की मूर्ति के टुकड़े-टुकड़े हो गये। मूर्ति टूटकर गिर पड़ी। स्वर्ग से विमान आया स्त्री को लेने के लिए। विमान को भी कृष्णार्पण कर दिया। विमान जाकर मंदिर से टकराया और वह भी टुकड़े-टुकड़े हो गया। स्वर्ग श्रीकृष्ण के ध्यान के सामने व्यर्थ है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज