गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 88

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नौवां अध्याय
मानव-सेवारूपी राजविद्या: समर्पणयोग
43. अधिकार-भेद की झंझट नहीं

9. कृष्ण के सारे जीवन में उसका बचपन बहुत ही मधुर है। बालकृष्ण की ही विशेष उपसना की जाती है। वह ग्वाल-बालों के साथ गायें चराने जाता है, उनके साथ खाता-पीता और हंसता-खेलता। इंद्र की पूजा करने के लिए जब ग्वाल-बाल निकले, तो उसने उनसे कहा- "इंद्र को किसने देखा है? उसके उपकार ही क्या है? पर यह गोवर्धन पर्वत हमें प्रत्यक्ष दिखायी देता है। यहाँ गायें चरती हैं। इसमें पानी के सोते बहते हैं। अतः इसी की पूजा करो।" ऐसी बातें वह उन्हें सिखाया करता। जिन ग्वालों में खेला, जिन गोपियों से हंसा-बोला, जिन गाय-बछड़ों में रमा, उन सबके लिए उसने मोक्ष का द्वार खोल दिया। कृष्ण परमात्मा ने अपने अनुभव से यह सरल मार्ग बताया है। बचपन में उसका गाय-बछड़ों से संबंध रहा। बड़े होने पर घोड़ों से। मुरली की ध्वनि सुनते ही गायें गद्गद् हो जातीं और कृष्ण के हाथ फेरते ही घोड़े फुरफुराने लगते। वे गाय-बछड़े और वे रथ के घोड़े केवल कृष्णमय हो जाते। ‘पापयोनि’ माने गये उन पशुओं को भी मानों मोक्ष मिल जाता था। मोक्ष पर केवल मनुष्य का ही अधिकार नहीं, बल्कि पशु-पक्षियों का भी है- यह बात श्रीकृष्ण ने स्पष्ट कर दी है। अपने जीवन में उन्होंने इस बात का अनुभव किया था।

10. जो अनुभव भगवान को हुआ, वही व्यास जी को भी हुआ। कृष्ण और व्यास, दोनों एकरूप ही हैं। दोनों के जीवन का सार भी एक ही है। मोक्ष न विद्वत्ता पर अवलंबित है, न कर्म-कलाप पर। उसके लिए तो सीधी-सादी भक्ति ही पर्याप्त है। ‘मैं’ ‘मैं’ कहने वाले ज्ञानी पीछे ही रह गये और भोली-भावुक स्त्रियां उनसे आगे बढ़ गयीं। यदि मन पवित्र हो और सीधा-भोला पवित्र भाव हो, तो फिर मोक्ष कठिन नहीं है। महाभारत में ‘जनक-सुलभा-संवाद; नामक प्रकरण है। उसमें व्यास जी ने एक ऐसे प्रसंग की रचना की है, जिसमें राजा जनक ज्ञान प्राप्ति के लिए स्त्री के पास गये हैं। आप लोग भले ही बहस करते रहें कि स्त्रियों को वेदों का अधिकार है या नहीं, परंतु सुलभा तो यहाँ प्रत्यक्ष जनक राजा को ब्रह्मविद्या सिखा रही है। वह एम मामूली स्त्री और जनक कितना बड़ा सम्राट! कितनी विद्याओं से संपन्न! पर उस महाज्ञानी जनक के पास मोक्ष नहीं था। इसलिए व्यासदेव ने उसे सुलभा के चरणों में झुकाया। ऐसी ही बात उस तुलाधार वैश्य की है। जाजलि ब्राह्मण उसके पास ज्ञान पाने के लिए जाता है। तुलाधार कहता है- "तराजू की डंडी सीधी रखने में ही मेरा सारा ज्ञान समाया हुआ है!" वैसी ही कथा व्याध की है। व्याध ठहरा कसाई। पशुओं को मारकर वह समाज की सेवा करता था। एक अहंकारी तपस्वी ब्राह्मण को उसके गुरु ने व्याध के पास जाने के लिए कहा। ब्राह्मण को आश्चर्य हुआ कि यह कसाई मुझे क्या ज्ञान देगा? ब्राह्मण व्याध के पास गया। व्याध क्या कर रहा था? मांस काट रहा था, मांस धो रहा था और साफ करके उसे बिक्री के लिए रख रहा था। उसने ब्राह्मण से कहा- "देखो, मेरा यह कर्म जितना धर्ममय किया जा सकता है, उतना मैं करता हूँ। अपनी आत्मा जितनी इस कर्म में उंड़ेली जा सकती है, उतनी उंड़ेलकर मैं यह कर्म करता हूँ और अपने मां-बाप की सेवा करता हूँ।" ऐसे इस व्याध के रूप में व्यास देव ने आदर्श मूर्ति खड़ी की है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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