गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 72

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सातवां अध्याय
प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता
35. निष्काम भक्ति के प्रकार और पूर्णता

16. ये तीनों भक्त हैं तो निष्काम, परन्तु एकांकी हैं। एक कर्म के द्वारा, दूसरा हृदय के द्वारा, तीसरा बुद्धि के द्वारा ईश्वर के पास पहुँचता है। अब रहा पूर्ण भक्त का प्रकार। इसी को ज्ञानी भक्त कहना चाहिए। इस भक्त को जो कुछ दीखता है सो सब परमेश्वर का ही रूप है। कुरुप-सुरूप, राव-रंक, स्त्री-पुरुष, पशु-पक्षी सर्वत्र परमात्मा के ही पावन दर्शन। नर-नारी बाळे अवघा नारायण। ऐसें माझें मन करीं देवा- ‘नर, नारी, बालक सभी नारायण हैं। ऐसा मेरा मन बना दो, हे प्रभु!’ संत तुकाराम की ऐसी प्रार्थना है। हिन्दू-धर्म में जैसे नाग-पूजा, हाथी की सूंड वाले देवता की पूजा, पेड़ों की पूजा आदि पागलपन के नमूने हैं, उनसे भी अधिक पागलपन का कमाल, ज्ञानी भक्तों में दीखता है। उनसे कोई भी क्यों न मिले, उन्हें चींटी से लेकर चंद्र-सूर्य तक सर्वत्र एक ही परमात्मा दीखता है और उनका हृदय आनंद से हिलोरें मारने लगता है।

मग तया सुखा अंत नाहीं पार। आनंदें सागर हेलावती- ‘फिर उसे अपार सुख मिलता है। आनंद से उसका हृदय-सागर हिलोरें मारने लगता है।’


ऐसा जो यह दिव्य और भव्य दर्शन है, उसे भले ही आप भ्रम कहें; परंतु यह भ्रम सौख्यकी राशि है, आनंद की निधि है। गंभीर सागर में उसे परमेश्वर का विलास दिखायी देता है, गौ-माता में उसे ईश्वर का वात्सल्य नजर आता है, पृथ्वी में उसकी क्षमता दीख पड़ती है, निरभ्र आकाश में उसकी निर्मलता, रवि-चंद्र-तारों में उसका तेज और भव्यता दीख पड़ती है। फूल में उसकी कोमलता और दुर्जनों में अपनी कसौटी करने वाला परमेश्वर दीखता है। इस तरह ‘एक ही परमात्मा सर्वत्र रम रहा है’ यह देखने का अभ्यास ज्ञानी भक्त किया करते हैं। ऐसा करते-करते वह ज्ञानी भक्त एक दिन ईश्वर में ही मिल जाता है।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. रविवार, 3-4-32

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गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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