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सातवां अध्याय
प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता
35. निष्काम भक्ति के प्रकार और पूर्णता
13. सकाम भक्त हमने देखा। अब निष्काम भक्त देखें। उनमें दो प्रकार हैं- एकांगी और पूर्ण। एकांगी के भी तीन प्रकार। उनमें पहला प्रकार है आर्त भक्तों का। आर्त होता है आर्द्रता ढूंढने वाला, भगवान के लिए रोने-छटपटानेवाला; जैसे नामदेव। वह इस बात के लिए उत्सुक, व्याकुल रहता है कि कब भगवान का प्रेम पाऊंगा, कब उसके गले लगूंगा; कब उसके चरणें में अपने को डालूंगा! प्रत्येक कार्य में वह यह देखेगा कि उसमें हार्दिकता है या नहीं, प्रेम है या नहीं।
14. दूसरा प्रकार है, जिज्ञासुओं का। आजकल अपने देश में इस श्रेणी के भक्त बहुत नहीं है। इस कोटि के भक्तों में कोई गौरीशंकर पर बार-बार चढ़ेंगे और मरेंगे। कोई उत्तर ध्रुव की खोज में निकलेंगे और अपनी खोज के फल कागज पर लिखकर उन्हें बोतल में बंद करके पानी में छोड़कर मर जायेंगे। कोई ज्वालामुखी के गर्भ में उतरेंगे। अभी तो हिंदुस्तानियों के लिए मौत एक हौआ बन बैठी है। परिवार के भरण-पोषण से बढ़कर कोई पुरुषार्थ ही नहीं रहा है। जिज्ञासु भक्त के पास अदम्य जिज्ञासा होती है। वह प्रत्येक वस्तु के गुण-धर्म की खोज करता है। मनुष्य जैसे नदी-मुख से अंत में सागर को पा लेता है, उसी तरह यह जिज्ञासु भी अंत में परमेश्वर को प्राप्त कर लेगा।
15. तीसरा प्रकार है, अर्थार्थियों का। अर्थार्थी का अर्थ है, प्रत्येक बात में अर्थ देखने वाला। ‘अर्थ’ का मतलब पैसा नहीं; बल्कि हित, कल्याण है। किसी भी बात की जांच करते समय वह उसे इस कसौटी पर कसेगा कि इसके द्वारा समाज का क्या कल्याण होगा। वह देखेगा कि मैं जो कुछ कहता, लिखता, करता हूं, उससे संसार का मंगल होगा या नहीं? निरूपयोगी, अहितकर क्रिया उसे पसंद नहीं आयेगी। संसार के हित की चिंता करने वाला कितना बड़ा महात्मा है। वह! जगत् का कल्याण ही उसका आनंद हैं। जो प्रेम की दृष्टि से समस्त क्रियाओं को देखता है, वह आर्त; ज्ञान की दृष्टि से देखता है, वह जिज्ञासु और सबके कल्याण की दृष्टि से देखता है, वह अर्थार्थी।
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