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छठा अध्याय
चित्तवृत्ति-निरोध
30. बालक गुरु
23. हृदय के इस समुद्र को निहारना सीखिए। बाहर के निरभ्र नील आकाश को देखकर चित्त को भी निर्लेप और निर्मल बनाइए। सच पूछो, तो चित्त की एकाग्रता एक खेल है। चित्त की व्यग्रता ही अस्वाभाविक और अनैसर्गिक है। छोटे बच्चों की आंखों की ओर एकटक होकर देखो। छोटा बच्चा टकटकी लगाकर देखता है, लेकिन आप दस बार पलक गिरायेंगे। बच्चों का मन तुरंत एकाग्र हो जाता है। चार-पांच महीने के बच्चे को बाहर की हरी-भरी सृष्टि दिखलाओ वह सतत देखता रहेगा। स्त्रियों की तो ऐसी मान्यता है कि बाहर की हरियाली को देखकर उसकी विष्ठा भी हरे रंग की हो जाती है। मानो सब इंद्रियों की आंखें बनाकर वह देखता है। छोटे बच्चे के मन पर किसी भी घटना का बड़ा प्रभाव पड़ता है। शिक्षाशास्त्री कहते हैं- "शुरू के दो-चार सालों में जो शिक्षा बालकों को मिल जाती है, वही वास्तविक शिक्षा है।" आप कितने ही विद्यापीठ, पाठशालाएं, संघ-संस्थाएं कायम कीजिए, शुरू में जो शिक्षा मिलती है, वैसी फिर आगे नहीं मिल सकती। शिक्षा विषय से मेरा संबंध है। दिन-ब-दिन मेरा यह निश्चय होता जा रहा है कि इस बाहरी शिक्षा का परिणाम शून्यवत है। आरंभिक संस्कार वज्रलेप हो जाते हैं। बाद के शिक्षण को बाहरी रंग, ऊपरी झिल्ली समझो। साबुन लगाने से ऊपर का दाग, मैल निकल जाता है; परन्तु चमड़ी का काला रंग जायेगा क्या? उसी तरह शुरू में जो संस्कार पड़ जाता है, उसका मिटना अत्यंत कठिन हो जाता है।
तो ये शुरू के संस्कार बलवान क्यों? बाद के संस्कार कमज़ोर क्यों? इसलिए कि बचपन में चित्त की एकाग्रता नैसर्गिक रहती है। एकाग्रता होने के कारण जो संस्कार पड़ते हैं, वे फिर नहीं मिटते। चित्त की एकाग्रता की ऐसी महिमा है। जिसे यह एकाग्रता प्राप्त हो गयी, उसके लिए क्या अशक्य है?
24. हमारा सारा जीवन आज कृत्रिम हो गया है। हमारी बालवृत्ति मर गयी है, नष्ट हो गयी है। जीवन में वास्तविक सरसता नहीं। वह शुष्क हो गया है। हम ऊटपटांग, जैसे-तैसे चल रहे हैं। डार्विन साहब नहीं, बल्कि हम खुद अपनी कृति से यह सिद्ध कर रहे हैं कि मनुष्य के पूर्वज बंदर थे।
छोटे बच्चों में विश्वास होता है। मां जो कहे, वह उनके लिए प्रमाण। जो कहानियां उनसे कही जाती हैं, वे असत्य नहीं मालूम होतीं। कौआ बोला, चिड़िया बोली, यह सब उन्हें सच मालूम होता है। बच्चों की इस मंगल-वृत्ति के कारण उनकी एकाग्रता जल्दी होती है।
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