छठा अध्याय
चित्तवृत्ति-निरोध
29. मंगल-दृष्टि
20. किसी दुःखी मनुष्य को कल-कल बहने वाली नदी के किनारे ले जाइए। उसके स्वच्छ-शांत प्रवाह को देखकर उसकी बेचैनी कम हो जायेगी। वह अपना दुःख भूल जायेगा। उस झरने में, उस प्रवाह में इतनी शक्ति कहाँ से आयी? परमेश्वर की शुभ शक्ति उसमें प्रकट हुई है। वेदों में झरने का बड़ा ही सुंदर वर्णन है- अतिष्ठन्तीनां अनिवेशनानाम्। ऐसे ये झरने हैं झरना अखंड बहता है। उसका अपना कोई घरबार नहीं। वह संन्यासी है। ऐसा पवित्र झरना एक क्षण में मेरे मन को एकाग्र बना देता है। ऐसे सुंदर झरने को देखकर प्रेम का, ज्ञान का झरना मेरे मन में मैं क्यों न निर्माण करूं? 21. यह बाहर का जड़ पानी भी यदि मेरे मन को शांति प्रदान कर सकता है, तो फिर मेरी मानस-दरी में यदि भक्ति और ज्ञान का चिन्मय झरना बहने लगे, तो कितनी शांति प्राप्त होगी! मेरे एक मित्र हिमालय में, कश्मीर में, घूम रहे थे, वहाँ के पवित्र पर्वतों के, सुंदर जल-प्रवाहों के वर्णन वे लिख-लिखकर मुझे भेजते थे। मैंने उन्हें उत्तर दिया कि जो जल-स्त्रोत, जो पर्वत-माला, जो शुभ समीर तुम्हें वहाँ अनुपम आनंद देते हैं, उन सबका अनुभव मैं अपने हृदय में करता हूँ। अपनी अंतः सृष्टि में मैं नित्य उन सब रमणीय दृश्यों को देखता हूँ। अतः तुम्हारे बुलाने पर भी मैं अपने हृदय के इस भव्य-दिव्य हिमालय को छोड़कर नहीं आऊंगा। स्थावराणां हिमालयः। जिस स्थिरता-मूर्ति हिमालय की उपासना स्थिरता लाने के लिए करनी है, उसका वर्णन सुनकर यदि मैंने अपना कर्तव्य छोड़ दिया तो उससे क्या लाभ! 22. सारांश, चित्त को जरा शांत कीजिए। सृष्टि की ओर मंगल दृष्टि से देखिए, तो फिर आपके हृदय में अनंत झरने बहने लगेंगे। कल्पनाओं के दिव्य तारे हृदयाकाश में चमकने लगेंगे। पत्थर और मिट्टी की शुभ वस्तु देखकर यदि चित्त शांत हो जाता है, तो फिर अंतः सृष्टि के दृश्य देखकर वह शांत क्यों न होगा? एक बार मैं त्रावणकोर गया था। एक दिन समुद्र-किनारे बैठा था। वह अपार समुद्र, उसकी धू-धू गर्जना, सायंकाल का समय। मैं स्तब्ध, निश्चेष्ट बैठा था। मेरे मित्र ने वहीं समुद्र किनारे कुछ फल वगैरह खाने के लिए ला दिये। उस समय वह सात्त्विक आहार भी मुझे विष की तरह लगा। समुद्र की वह ॐ ॐ गर्जना, मुझे मामनुस्मर युध्य च- इस गीता-वचन की याद दिला रही थी। समुद्र सतत स्मरण कर रहा था और कर्म भी कर रहा था। एक लहर आयी, वह गयी और दूसरी आयी। उसे एक क्षण के लिए विश्रांति नहीं। यह दृश्य देखकर मेरी भूख-प्यास उड़ गयी थी। आखिर उस समुद्र में ऐसा क्या था? उस खारे पानी की लहरों को उछलते हुए देखकर यदि मेरा हृदय उछलने लगता है, तो फिर ज्ञान और प्रेम का अथाह सागर हृदय में हिलोरें मारने लगे तो मैं कितना नाचूंगा? वैदिक ऋषि के हृदय में ऐसा ही समुद्र हिलोरें मारता था- अंतः समुद्रे हृदि अंतरायुषि..... इस दिव्य भाषा पर भाष्य लिखते हुए बेचारे भाष्यकारों की फजीहत होने की नौबत आ गयी। कौन-सी वह घृत की धारा! कौन-सी वह मधु की धारा! मेरे अंतः समुद्र में क्या खारी लहरें उठेंगी? नही, नही, मेरे हृदय में तो दूध-घी और मधु की लहरें हिलोरें मार रही हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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