गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 57

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छठा अध्याय
चित्तवृत्ति-निरोध
29. मंगल-दृष्टि

16. तीसरी बात है, समदृष्टि होना। समदृष्टि का अर्थ ही है-शुभदृष्टि। शुभदृष्टि प्राप्त हुए बिना चित्त एकाग्र नहीं हो सकता। सिंह इतना बड़ा वनराज है, परन्तु चार कदम चलकर पीछे देखता है। हिंसक सिंह को एकाग्रता कैसे प्राप्त होगी? शेर, कौए, बिल्ली, इनकी आंखें हमेशा घूमती रहती हैं। उनकी निगाह चौकन्नी, घबरायी हुई होती है। हिंस्त्र प्राणियों का ऐसा ही हाल रहेगा। साम्यदृष्टि आनी चाहिए। यह सारी सृष्टि मंगलमय लगनी चाहिए। जैसे मुझे खुद अपने पर विश्वास है, वैसा ही सारी सृष्टि पर मेरा विश्वास होना चाहिए।

17. यहाँ डरने की बात ही क्या है? सब कुछ शुद्ध और पवित्र है। विश्वं तद् भद्रं यद्वन्ति देवाः - यह विश्व मंगलमय है, क्योंकि परमेश्वर उसकी सार-संभाल करता है। अंग्रेज कवि ब्राउनिंग ने भी ऐसा ही कहा है- "ईश्वर आकाश में विराजमान है और सारा विश्व ठीक ही चल रहा है।"

विश्व में कुछ भी बिगाड़ नहीं है। अगर बिगाड़ कहीं है, तो वह मेरी दृष्टि में है। जैसी मेरी दृष्टि, वैसी सृष्टि। यदि मैं लाल रंग का चश्मा चढ़ा लूंगा, तो सारी सृष्टि लाल-ही-लाल दिखायी देगी, जलती हुई दिखायी देगी।

18. रामदास रामायण लिखते जाते और शिष्यों को पढ़कर सुनाते जाते थे। हनुमान भी गुप्त रूप से उसे सुनने के लिए आकर बैठते थे। समर्थ रामदास ने लिखा था- "हनुमान अशोक वन में गये। वहाँ उन्होंने सफेद फूल देखे।" यह सुनते ही वहाँ झट से हनुमान प्रकट हो गये और बोले- "मैंने सफेद फूल बिलकुल नहीं देखे, लाल देखे थे। आपने गलत लिखा है। उसे सुधार लीजिए।" समर्थ ने कहा- "मैंने ठीक लिखा है। आपने सफेद ही फूल देखे थे।" हनुमान ने कहा- "मैं खुद वहाँ गया था और मैं ही झूठा?" अंत में झगड़ा रामचंद्र जी के पास गया। उन्होंने कहा - "फूल तो सफेद ही थे; परन्तु हनुमान की आंखें क्रोध से लाल हो रही थीं, इसलिए शुभ्र फूल उन्हें लाल दिखायी दिये।" इस मधुर कथा का आशय यही है कि संसार की ओर देखने की जैसी हमारी दृष्टि होगी, संसार भी हमें वैसा ही दिखायी देगा।

19. यदि हमारे मन को इस बात का निश्चय न हो कि यह सृष्टि शुभ है, तो चित्त की एकाग्रता नहीं हो सकती। जब तक मैं यह समझता रहूंगा कि सृष्टि बिगड़ी हुई है, तब तक मैं संशक दृष्टि से चारों ओर देखता रहूंगा। कवि पक्षियों की स्वतंत्रता के गीत गाते हैं। उनसे कहना चाहिए कि जरा एक बार पक्षी होकर देखो तो। फिर उनकी आजादी की सही कीमत मालूम हो जायेगी। पक्षियों की गर्दन बराबर आगे-पीछे सतत नाचती रहती है। उन्हें सतत दूसरों का भय लगा रहता है। चिड़िया को आसन पर ला बिठाओ। क्या वह एकाग्र हो जायेगी? मेरे जरा निकट जाते ही वह फुर्र से उड़ जायेगी। वह डरेगी कि कहीं यह मुझे मारने तो नहीं आ रहा है! जिनके दिमाग में ऐसी भयानक कल्पना है कि यह सारी दुनिया भक्षक है, संहारक है, उन्हें शांति कहां? जब तक यह खयाल दिमाग से नहीं निकलेगा कि अपना रक्षक मैं अकेला ही हूं, बाकी सब भक्षक हैं, तब तक एकाग्रता नहीं सध सकती। समदृष्टि की भावना करना, यही एकाग्रता का उत्तम मार्ग है। आप सर्वत्र मांगल्य देखने लग जाइए, चित्त अपने-आप शांत हो जायेगा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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