गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 56

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छठा अध्याय
चित्तवृत्ति-निरोध
28. जीवन की परिमितता

13. चित्त की एकाग्रता में सहायक दूसरी बात है- जीवन की परिमितता। हमारा सब काम नपा-तुला होना चाहिए। गणित-शास्त्र का यह रहस्य हमारी सब क्रियाओं में आ जाना चाहिए। औषधि जैसे नाप-तौल कर ली जाती है, वैसे ही आहार-निद्रा भी नपी-तुली होनी चाहिए। सब जगह नाप-तौल चाहिए। प्रत्येक इंद्रिय पर पहरा बैठाना चाहिए। मैं ज्यादा तो नहीं खाता, अधिक तो नहीं सोता, जरूरत से ज्यादा तो नहीं देखता- इस प्रकार सतत बारीकी से जांच करते रहना चाहिए।

14. एक भाई किसी व्यक्ति के बारे में कह रहे थे कि वे किसी के कमरे में जाते, तो एक मिनट में उनकी निगाह में आ जाता था कि कमरे में कहाँ क्या रखा है। मैंने मन में कहा- "भगवन, यह महिमा मुझे न प्राप्त हो" क्या मैं उसका सचिव हूं, जो पांच-पचीस चीजों की सूची मन में रखूं? क्या मुझे चोरी करनी है? साबुन यहाँ था, घडी वहाँ थी, इससे मुझे क्या करना है? इस ज्ञान की मुझे क्या जरूरत? आंखों का यह वाहियातपन मुझे छोड़ देना चाहिए। यही बात कान की है। कान पर भी पहरा रखो। कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि ‘यदि कुत्तों की तरह हमारे कान होते, तो कितना अच्छा होता! जिधर चाहते, उधर एक क्षण में उन्हें हिला सकते! मनुष्य के कान में परमात्मा ने यह कसर ही रख दी! परन्तु कान का यह वाहियातपन हमें नही चाहिए। वैसे ही यह मन भी जबर्दस्त है। जरा कहीं खटका हुआ, आहट हुई कि गया उधर ध्यान।

15. अतः जीवन में नियमन और परिमितता लायें। खराब चीज न देखें। खराब किताब न पढें। निंदा-स्तुति न सुनें। सदोष वस्तु तो दूर, निर्दोष वस्तुओं का भी आवश्यता से अधिक सेवन न करें। लोलुपता किसी भी प्रकार की नहीं होनी चाहिए। शराब, पकौड़ी, रसगुल्ले तो होने ही नहीं चाहिए। परन्तु संतरे, केले, मोसंबी भी बहुत नहीं चाहिए। फलाहार यों शुद्ध आहार है, परन्तु वह भी मनमाना नहीं होना चाहिए। जीभ का स्वेच्छाचार भीतरी मालिक को सहन नहीं करना चाहिए। इंद्रियों को यह भय रहे कि यदि हम ऊटपटांग बरतेंगे तो भीतर का मालिक हमें जरूर सजा देगा। नियमित आचरण को ही ‘जीवनकी परिमितता’ कहते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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