गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 53

Prev.png
छठा अध्याय
चित्तवृत्ति-निरोध
27. एकाग्रता कैसे साधें?


8. अब एकाग्रता तो चाहिए, पर वह हो कैसे? उसके लिए क्या करना चाहिए? भगवान कहते हैं, आत्मा में मन को स्थिर करके न किंचिदपि चिंतयेत्- दूसरा कुछ भी चिंतन न करें।

परन्तु यह सधे कैसे? मन को बिलकुल शांत करना बडे महत्त्व की बात है। विचारों के चक्र को जोर से रोके बिना एकाग्रता होगी कैसे? बाहरी चक्र तो किसी तरह रोक भी लिया जाये, परन्तु भीतरी चक्र तो चलता ही रहता है। चित्त की एकाग्रता के लिए ये बाहरी साधन जैसे-जैसे काम में लाते हैं, वैसे-वैसे भीतर का चक्र अधिक वेग से चलने लगता है। आप आसन जमाकर तनकर बैठ जाइए, आंखें स्थिर कर लीजिए। परन्तु इतने से मन एकाग्र नहीं हो सकेगा। मुख्य बात है कि मन का चक्र बंद करना सधना चाहिए।

9. बात यह है कि बाहर का यह अपरंपार संसार, जो हमारे मन में भरा रहता है, उसको बंद किये बिना एकाग्रता का सधना अशक्य है। अपनी आत्मा की आपार ज्ञान-शक्ति हम बाह्य क्षुद्र वस्तुओं में खर्च कर डालते हैं, लेकिन ऐसा नहीं होना चाहिए। जिस तरह दूसरे को न लूटते हुए स्वयं अपने प्रयत्न से धनी बनने वाला पुरुष आवश्कता के बिना खर्च नहीं करता, उसी तरह हमें भी अपनी आत्मा की ज्ञानशक्ति क्षुद्र बातों के चिंतन में खर्च नहीं करनी चाहिए। यह ज्ञानशक्ति हमारी अमूल्य थाती है, परन्तु हम उसे स्थूल विषयों में खर्च कर डालते हैं। यह साग अच्छा नहीं बना, इसमें नमक कम पड़ा! अरे भाई, कितनी रत्ती नमक कम पड़ा? नमक तनिक-सा कम पड़ा, इस महान विचार में ही हमारा ज्ञान खर्च हो जाता है! बच्चों को पाठशाला की चहारदीवारी के अंदर ही पढ़ाते हैं। कहते हैं कि यदि पेड़ के नीचे पढ़ायेंगे, तो कौए, कोयल और चिडियां देखकर उनका मन एकाग्र नहीं होगा। बच्चे ही जो ठहरे! कौए-चिड़ियां नहीं दिखीं, तो हो गयी उनकी एकाग्रता! परन्तु हम हो गये हैं घोड़े! हमारे अब सींग निकल आये हैं। हमें सात-सात दीवालों के भीतर भी किसी ने बंदकर रखा, तो भी हमारे मन की एकाग्रता नहीं हो सकती। क्योंकि, दुनिया की फालतू बातों की चर्चा हम करेंगे। जो ज्ञान परमेश्वर की प्राप्ति करा सकता है, उसे हम साग-सब्जी के जायके की चर्चा करने में ही खो देते हैं और उसमें कृतार्थता मानते हैं।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः