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छठा अध्याय
चित्तवृत्ति-निरोध
27. एकाग्रता कैसे साधें?
8. अब एकाग्रता तो चाहिए, पर वह हो कैसे? उसके लिए क्या करना चाहिए? भगवान कहते हैं, आत्मा में मन को स्थिर करके न किंचिदपि चिंतयेत्- दूसरा कुछ भी चिंतन न करें।
परन्तु यह सधे कैसे? मन को बिलकुल शांत करना बडे महत्त्व की बात है। विचारों के चक्र को जोर से रोके बिना एकाग्रता होगी कैसे? बाहरी चक्र तो किसी तरह रोक भी लिया जाये, परन्तु भीतरी चक्र तो चलता ही रहता है। चित्त की एकाग्रता के लिए ये बाहरी साधन जैसे-जैसे काम में लाते हैं, वैसे-वैसे भीतर का चक्र अधिक वेग से चलने लगता है। आप आसन जमाकर तनकर बैठ जाइए, आंखें स्थिर कर लीजिए। परन्तु इतने से मन एकाग्र नहीं हो सकेगा। मुख्य बात है कि मन का चक्र बंद करना सधना चाहिए।
9. बात यह है कि बाहर का यह अपरंपार संसार, जो हमारे मन में भरा रहता है, उसको बंद किये बिना एकाग्रता का सधना अशक्य है। अपनी आत्मा की आपार ज्ञान-शक्ति हम बाह्य क्षुद्र वस्तुओं में खर्च कर डालते हैं, लेकिन ऐसा नहीं होना चाहिए। जिस तरह दूसरे को न लूटते हुए स्वयं अपने प्रयत्न से धनी बनने वाला पुरुष आवश्कता के बिना खर्च नहीं करता, उसी तरह हमें भी अपनी आत्मा की ज्ञानशक्ति क्षुद्र बातों के चिंतन में खर्च नहीं करनी चाहिए। यह ज्ञानशक्ति हमारी अमूल्य थाती है, परन्तु हम उसे स्थूल विषयों में खर्च कर डालते हैं। यह साग अच्छा नहीं बना, इसमें नमक कम पड़ा! अरे भाई, कितनी रत्ती नमक कम पड़ा? नमक तनिक-सा कम पड़ा, इस महान विचार में ही हमारा ज्ञान खर्च हो जाता है! बच्चों को पाठशाला की चहारदीवारी के अंदर ही पढ़ाते हैं। कहते हैं कि यदि पेड़ के नीचे पढ़ायेंगे, तो कौए, कोयल और चिडियां देखकर उनका मन एकाग्र नहीं होगा। बच्चे ही जो ठहरे! कौए-चिड़ियां नहीं दिखीं, तो हो गयी उनकी एकाग्रता! परन्तु हम हो गये हैं घोड़े! हमारे अब सींग निकल आये हैं। हमें सात-सात दीवालों के भीतर भी किसी ने बंदकर रखा, तो भी हमारे मन की एकाग्रता नहीं हो सकती। क्योंकि, दुनिया की फालतू बातों की चर्चा हम करेंगे। जो ज्ञान परमेश्वर की प्राप्ति करा सकता है, उसे हम साग-सब्जी के जायके की चर्चा करने में ही खो देते हैं और उसमें कृतार्थता मानते हैं।
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