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छठा अध्याय
चित्तवृत्ति-निरोध
26. चित्त की एकाग्रता
7. सारांश यह कि व्यवहार हो या परमार्थ, चित्त की एकाग्रता के बिना उसमें सफलता मिलना कठिन है। यदि चित्त एकाग्र रहेगा, तो फिर सामर्थ्य की कभी कमी न पड़ेगी। साठ वर्ष के बूढ़े होने पर भी किसी नौजवान की तरह आपमें उत्साह और सामर्थ्य दीख पड़ेगा। मनुष्य ज्यों-ज्यों बुढ़ापे की तरफ बढ़े, त्यों-त्यों उसका मन अधिक मजबूत होता जाना चाहिए। फल को ही देखिए न! पहले वह हरा होता है, फिर पकता है, फिर सड़ता है, गलता है और मिट जाता है; परन्तु उसका भीतर का बीज उत्तरोत्तर कड़ा होता जाता है। यह बाहरी शरीर सड़ जायेगा। गिर जायेगा परन्तु बाहरी शरीर फल का सार-सर्वस्व नहीं है। उसका सार-सर्वस्व, उसकी आत्मा तो है बीज। यही बात शरीर की है। शरीर भले ही बूढ़ा होता चला जाये, परन्तु स्मरण-शक्ति तो बढ़ती ही रहनी चाहिए। बुद्धि तेजस्वी होनी चाहिए। परन्तु ऐसा होता नहीं। मनुष्य
कहता है-
"आजकल मेरी स्मरण-शक्ति कम हो गयी है।"
"क्यों?"
"अब बुढ़ापा आ गया है!"
तुम्हारा जो ज्ञान, विद्या या स्मृति है, वह तुम्हारा बीज है। शरीर बूढ़ा होने से ज्यों-ज्यों ढीला पड़ता जाये, त्यों-त्यों आत्मा बलवान होती जानी चाहिए। इसके लिए एकाग्रता आवश्यक है।
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