पहला अध्याय
प्रास्ताविक आख्यायिका: अर्जुन का विषाद
2. अर्जुन की भूमिका का संबंध
9.यहाँ मुझे एक न्यायाधीश का किस्सा याद आता है। एक न्यायाधीश था। उसने सैकड़ों अपराधियों को फांसी की सजा दी थी। परन्तु एक दिन खुद उसी का लड़का खून के जुर्म में उसके सामने पेश किया गया। बेटे पर खून का जुर्म साबित हुआ और उसे फांसी की सजा देने की नौबत न्यायाधीश पर आ गयी। तब वह हिचकने लगा। वह बुद्धिवाद बधारने लगा- "फांसी की सजा बड़ी अमानुषी है। ऐसी सजा देना मुष्य को शोभा नहीं देता। इससे अपराधी के सुधरने की आशा नष्ट हो जाती है। खून करने वाले ने भावना के आवेश में, खून कर डाला। परन्तु उसकी आंखों पर से जनून उतर जाने पर उस व्यक्ति को गंभीरतापूर्वक फांसी के तख्ते पर चढ़ाकर मार डालना समाज की मनुष्यता के लिए बड़ी लज्जा की बात है, बड़ा कलंक है"- आदि दलीलें वह देने लगा। यदि अपना लड़का सामने न आया होता, तो जज साहब बेखटके जिन्दगी भर फांसी की सजा देते रहते। किन्तु वे अपने लड़के के ममत्व के कारण ऐसी बातें करने लगे। उनकी वह बात आंतरिक नहीं थी। वह आसक्तिजनित थी। ‘यह मेरा लड़का है’ इस ममत्व में से वह वाङ्मय निकला था। 10. अर्जुन की गति भी इस न्यायाधीश की तरह हुई। उसने जो दलीलें दी थीं वे गलत नहीं थीं। पिछले महायुद्ध के ठीक यही परिणाम दुनिया ने प्रत्यक्ष देखे हैं। परन्तु सोचने की बात इतनी ही है कि वह अर्जुन का तत्त्वज्ञान (दर्शन) नहीं था, कोरा प्रज्ञावाद था। कृष्ण इसे जानते थे। इसलिए उन्होंने उस पर जरा भी ध्यान न देकर सीधा उसके मोह-नाश का उपाय शुरू किया। अर्जुन यदि सचमुच अंहिसावादी हो गया होता, तो उसे किसी ने कितना ही अवांतर ज्ञान-विज्ञान बताया होता, तो भी असली बात का जवाब मिले बिना उसका समाधान न हुआ होता। परन्तु सारी गीता में इस मुद्दे का कहीं भी जवाब नहीं दिया है, फिर भी अर्जुन का समाधान हुआ है। यह सब कहने का अर्थ इतना ही है कि अर्जुन की अहिंसा-वृत्ति नहीं थी, वह युद्धप्रवृत्त ही था। युद्ध उसकी दृष्टि से उसका स्वभाव प्राप्त और अपरिहार्य रूप से निश्चित कर्त्तव्य था। उसे वह मोह के वश होकर टालना चाहता था और गीता का मुख्यतः इस मोह पर ही गदा प्रहार है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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