गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 43

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पांचवा अध्याय
दुहरी अकर्मावस्थाः योग और संन्यास
22. भूमिति और मीमांसकों का दृष्टांत

23. मीमांसकों ने तो बड़ा मजा ही किया है। परमेश्वर कहाँ है- इसकी मीमांसा करते हुए उन्होंने बड़ा सुन्दर निरूपण किया है। वेदों में इन्द्र, अग्नि, वरुण आदि देवता हैं। इन देवताओं का विचार मीमांसा में करते हुए एक ऐसा प्रश्न पूछा जाता है- "यह इन्द्र कैसा है? इसका रूप कैसा है? यह रहता कहाँ है?" मीमांसक उत्तर देते हैं- ‘इन्द्र’ शब्द ही इन्द्र का रूप है। ‘इन्द्र’ शब्द में ही वह रहता है। ‘इ’ और उस पर ‘अनुस्वार’, फिर ‘द्र’- यही उसका स्वरूप है। वही उसकी मूर्ति, वही प्रमाण। वरुण देवता कैसा? वैसे ही। पहले ‘व’ फिर ‘रु’ फिर ‘ण’। व रु ण यह है वरुण का रूप। इसी तरह अग्नि आदि देवताओं के विषय में समझिए। ये सारे देवता अक्षररूपधारी हैं। देवता सब अक्षर-मूर्ति हैं, इस कल्पना में- इस विचार में बड़ी मिठास है। देव यह कल्पना, यह वस्तु आकार में न समाने जैसी है। उस कल्पना को दर्शाने के लिए अक्षर, यही एक चिह्न पर्याप्त होगा। ईश्वर कैसा है? तो ‘ई’ फिर ‘श्व’ फिर ‘र’ आखिर में ‘ॐ’ ने तो कमाल ही कर डाला। 'ॐ’ अक्षर ही ईश्वर हो गया। ईश्वर के लिए वह एक संज्ञा ही बना दी। ऐसी संज्ञाएं बनानी पड़ती हैं, क्योंकि मूर्ति में, आकार में ये विशाल कल्पनाएं समा ही नहीं सकतीं। परन्तु मनुष्य की इच्छा बड़ी प्रचंड होती है। वह इन कल्पनाओं को मूर्ति में बैठाने का प्रयत्न करता ही है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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