पहला अध्याय
प्रास्ताविक आख्यायिका: अर्जुन का विषाद
2. अर्जुन की भूमिका का संबंध
8. कुछ दूसरे लोग कहते हैं कि अर्जुन की अहिंसा-वृत्ति को दूर करके उसे युद्ध में प्रवृत्त करने के लिए गीता कही गयी है। मेरी दृष्टि से यह कथन भी ठीक नहीं है। यह देखने के लिए पहले हमें अर्जुन की भूमिका बारीकी से समझनी चाहिए। इसके लिए पहले अध्याय से और दूसरे अध्याय में पहुँची हुई उसकी खाड़ी से हमें बहुत सहायता मिलेगी। अर्जुन, जो समर-भूमि में खड़ा हुआ, सो कृत-निश्चय होकर और कर्त्तव्य भाव से। क्षात्रवृत्ति उसके स्वभाव में थी। यृद्ध को टालने का भरसक प्रयत्न किया जा चुका था, फिर भी वह टला नहीं था। कम-से-कम मांग का प्रस्ताव और श्रीकृष्ण जैसे की मध्यस्थता, दोनों बातें बेकार हो चुकी थीं। ऐसी स्थिति में अनेक देशों के राजाओं को एकत्र करके और श्रीकृष्ण से अपना सारथ्य स्वीकृत कराकर वह रणांगण में खड़ा है और वीरवृत्ति के उत्साह के साथ श्रीकृष्ण से कहता है- "दोनों सेनाओं के बीच मेरा रथ खड़ा कीजिए, जिससे मैं एक बार उन लोगों के चेहरे तो देख लूं, जो मुझसे लड़ने के लिए तैयार होकर आये हैं।" कृष्ण ऐसा ही करते हैं। अर्जुन चारों ओर एक निगाह डालता है, तो उसे क्या दिखायी देता है? दोनों ओर अपने ही नाते-रिश्तेदारों, सगे-सम्बन्धियों का जबरदस्त जमघट। वह देखता है कि दादा, बाप, बेटे, पोते, आप्त-स्वजन-सम्बन्धियों की चार पीढ़ियाँ मरने-मारने के अंतिम निश्चय से वहाँ एकत्र हुई हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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