गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 4

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पहला अध्याय
प्रास्ताविक आख्यायिका: अर्जुन का विषाद
2. अर्जुन की भूमिका का संबंध

8. कुछ दूसरे लोग कहते हैं कि अर्जुन की अहिंसा-वृत्ति को दूर करके उसे युद्ध में प्रवृत्त करने के लिए गीता कही गयी है। मेरी दृष्टि से यह कथन भी ठीक नहीं है। यह देखने के लिए पहले हमें अर्जुन की भूमिका बारीकी से समझनी चाहिए। इसके लिए पहले अध्याय से और दूसरे अध्याय में पहुँची हुई उसकी खाड़ी से हमें बहुत सहायता मिलेगी।

अर्जुन, जो समर-भूमि में खड़ा हुआ, सो कृत-निश्चय होकर और कर्त्तव्य भाव से। क्षात्रवृत्ति उसके स्वभाव में थी। यृद्ध को टालने का भरसक प्रयत्न किया जा चुका था, फिर भी वह टला नहीं था। कम-से-कम मांग का प्रस्ताव और श्रीकृष्ण जैसे की मध्यस्थता, दोनों बातें बेकार हो चुकी थीं। ऐसी स्थिति में अनेक देशों के राजाओं को एकत्र करके और श्रीकृष्ण से अपना सारथ्य स्वीकृत कराकर वह रणांगण में खड़ा है और वीरवृत्ति के उत्साह के साथ श्रीकृष्ण से कहता है- "दोनों सेनाओं के बीच मेरा रथ खड़ा कीजिए, जिससे मैं एक बार उन लोगों के चेहरे तो देख लूं, जो मुझसे लड़ने के लिए तैयार होकर आये हैं।" कृष्ण ऐसा ही करते हैं। अर्जुन चारों ओर एक निगाह डालता है, तो उसे क्या दिखायी देता है? दोनों ओर अपने ही नाते-रिश्तेदारों, सगे-सम्बन्धियों का जबरदस्त जमघट। वह देखता है कि दादा, बाप, बेटे, पोते, आप्त-स्वजन-सम्बन्धियों की चार पीढ़ियाँ मरने-मारने के अंतिम निश्चय से वहाँ एकत्र हुई हैं।
यह बात नहीं कि इससे पहले उसे इन बातों की कल्पना न हो, परन्तु प्रत्यक्ष दर्शन का कुछ अलग ही प्रभाव पड़ता है। उस सारे स्वजन समूह को देखकर उसके हृदय में एक उथल-पुथल मचती है। उसे बहुत बुरा लगता है। आज तक उसने अनेक युद्धों में असंख्य वीरों का संहार किया था। उस सयम उसे बुरा नहीं लगा था, उसका गांडीव हाथ से गिर नहीं पड़ा था, शरीर में कंप नहीं हुआ था, उसकी आंखे गीली नहीं हुई थीं। तो फिर इसी समय ऐसा क्यों हुआ? क्या अशोक की तरह उसके मन में अहिंसा-वृत्ति का उदय हुआ था? नहीं, यह तो केवल स्वजनासक्ति थी। इस समय भी यदि गुरु, बंधु और आप्त सामने न होते, तो उसने शत्रुओं के मुंड गेंद की तरह उड़ा दिये होते। परंतु इस आसक्तिजनित मोह ने उसकी कर्त्तव्य निष्ठा को ग्रस लिया और तब उसे तत्त्वज्ञान याद आया। कर्त्तव्यनिष्ठ मनुष्य को मोहग्रस्त होने पर भी नग्न- खुल्लमखुल्ला- कर्त्तव्यच्युति सहन नहीं होती। वह कोई सद् विचार उसे पहनाता है। यही हाल अर्जुन का हुआ। अब वह झूठ-मूठ प्रतिपादन करने लगा कि युद्ध ही वास्वत में एक पाप है। युद्ध से कुल क्षय होगा, धर्म का लोप होगा, स्वैराचार मचेगा, व्यभिचारवाद फैलेगा, अकाल आ पड़ेगा, समाज पर तरह-तरह के संकट आयेंगे, आदि अनेक दलीलें देकर वह कृष्ण को ही समझाने लगा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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