गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 35

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पांचवा अध्याय
दुहरी अकर्मावस्थाःयोग और संन्यास
18. अकर्म-दशा का स्वरूप

7. कर्म की सहजता को समझने के लिए हम अपने परिचय का एक उदाहरण लें। छोटा बच्चा पहले चलना सीखता है। उस समय उसे कितना कष्ट होता है। किन्तु हमें उसकी इस लीला से आनंद होता है। हम कहते हैं- 'देखो, लल्ला चलने लगा।' परन्तु पीछे वही चलना सहज हो जाता है वह चलता भी रहता है और बातचीत भी करता रहता है। चलने की ओर ध्यान भी नहीं रहता। यही बात खाने के सम्बन्ध में है। हम छोटे बच्चे का अन्नप्राशन करते हैं, मानो खाना कोई बड़ा काम हो। परन्तु पीछे वही खाना एक सहज कर्म हो जाता है। मनुष्य जब तैरना सीखता है, तो कितना कष्ट होता है। शुरू में उसे तैरने से थकान आती है, पर बाद में जब वह दूसरा श्रम करके थक जाता है, तो कहता है 'चलो, जरा तैर आयें तो थकान निकल जाये।' अब वह तैरना कष्टकर नहीं मालूम होता। शरीर यों ही सहज भाव से पानी पर तैरता रहता है। श्रमित होना मन का धर्म हैं मन जब उन कर्मों में फंसा रहता है तब श्रम मालूम होता है, परन्तु कर्म जब सहज होने लगते हैं, तो फिर उनका बोझ नहीं मालूम होता। कर्म मानों अकर्म हो जाता है। कर्म आनंदमय हो जाता है।

8. कर्म का अकर्म हो जाये यही हमारा ध्येय है। इसके लिए स्वधर्माचरण रूपी कर्म करने हैं। उन्हें करते हुए दोष नजर आयेगा जिन्हें दूर करने के लिए विकर्म का पल्ला पकड़ना होगा। ऐसा अभ्यास करते रहने से मन की फिर ऐसी स्थिति हो जाती है कि कर्म में त्रास या कष्ट बिलकुल नहीं मालूम होता। हजारों कर्म हाथों से होते रहेने पर भी मन निर्मल और शांत रहता है। आप आकाश से पूछिए- "भाई आकाश, तुम गर्मी में झुलसते होगे, वर्षा में भीगते होगे और सर्दी में ठिठुरते होगे!" तो वह क्या जवाब देगा? वह कहेगा- "मुझे क्या होता है, इसका फैसला तुम करो, मैं कुछ नहीं जानता।" पिसें नेसलें कां नागवें। हें लोकीं येऊनि जाणावें- 'पागल नंगा है या कपड़े पहने है, इसका फैसला लोग करें। पागल को इसका भान नहीं।'

इसका भावार्थ यही है कि स्वधर्माचरण सम्बन्धी कर्म, विकर्म की सहायता से निर्वकार बनाने की आदत होते-होते स्वाभाविक हो जाते है। बड़े-बड़े विकट अवसर भी फिर मुश्किल नहीं मालूम होते। कर्मयोग की यह कुंजी है। कुंजी न हो तो ताले को तोड़ते-तोड़ते हाथों में छाले पड़ जायेंगे। परन्तु कुंजी हाथ लग जाने पर पल भर में सब-कुछ खुल जायेगा। कर्मयोग की इस कुंजी के कारण सब कर्म निरुपद्रवी मालूम होते हैं। यह कुंजी मनोजय से मिलती है। अतः मनोजय का अविरित प्रयत्न होना चाहिए। कर्म करते हुए जो मनोमल दिखायी दें, उन्हें धो डालने का प्रयत्न करना चाहिए। तो फिर बाह्य कर्मो की झंझट नहीं मालूम होती। कर्म का अहंकार ही मिट जाता है। काम-क्रोध के वेग नष्ट हो जाते हैं। क्लेशों का अनुभव तक नहीं होता। कर्म का भी भान बाकी नहीं रहता।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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