गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 34

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पांचवा अध्याय
दुहरी अकर्मावस्थाः योग और संन्यास
17. बाह्य कर्म मन का दर्पण

6. सारांश यह कि अपने मन का स्वरूप समझने के लिए कर्म बड़े काम की चीज है? जब दोष दिखायी देंगे, तो वे दूर भी किये जा सकेंगे। यदि दोष मालूम ही न हो, तो प्रगति रुकी, विकास समाप्त। कर्म करेंगे तो दोष दिखायी देंगे। उन्हें दूर करने के लिए विकर्म की योजना करनी पड़ती है। भीतर जब ऐसे विकर्म के प्रयत्न रात-दिन जारी रहने लगेंगे, तो फिर स्वधर्म का आचरण करते हुए भी अलिप्त कैसे रहें, काम-क्रोधातीत, लोभ-मोहातीत कैसे रहें, यह बात यथा समय समझ में आ जायेगी। कर्म को निर्मल रखने का सतत प्रयत्न हो, तो फिर आगे चलकर निर्मल कर्म अपने-आप होने लगेगा। निर्विकार कर्म जब एक के बाद एक सहज भाव से होने लगते हैं, तो फिर यह पता भी नहीं लगता कि कर्म कब हो गया। जब कर्म सहज हो जाता है, तो वह अकर्म हो जाता है। सहज कर्म को ही ‘अकर्म’ कहते हैं, यह हमने चौथे अध्याय में देख लिया है। कर्म ‘अकर्म’ कैसे होता है, सो संत-चरणों में बैठने से मालूम होगा, यह भी भगवान ने चौथे अध्याय के अंत में बता दिया है। इस अकर्म-स्थिति का वर्णन करने के लिए वाणी अपर्याप्त है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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