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पांचवा अध्याय
दुहरी अकर्मावस्थाः योग और संन्यास
17. बाह्य कर्म मन का दर्पण
6. सारांश यह कि अपने मन का स्वरूप समझने के लिए कर्म बड़े काम की चीज है? जब दोष दिखायी देंगे, तो वे दूर भी किये जा सकेंगे। यदि दोष मालूम ही न हो, तो प्रगति रुकी, विकास समाप्त। कर्म करेंगे तो दोष दिखायी देंगे। उन्हें दूर करने के लिए विकर्म की योजना करनी पड़ती है। भीतर जब ऐसे विकर्म के प्रयत्न रात-दिन जारी रहने लगेंगे, तो फिर स्वधर्म का आचरण करते हुए भी अलिप्त कैसे रहें, काम-क्रोधातीत, लोभ-मोहातीत कैसे रहें, यह बात यथा समय समझ में आ जायेगी। कर्म को निर्मल रखने का सतत प्रयत्न हो, तो फिर आगे चलकर निर्मल कर्म अपने-आप होने लगेगा। निर्विकार कर्म जब एक के बाद एक सहज भाव से होने लगते हैं, तो फिर यह पता भी नहीं लगता कि कर्म कब हो गया। जब कर्म सहज हो जाता है, तो वह अकर्म हो जाता है। सहज कर्म को ही ‘अकर्म’ कहते हैं, यह हमने चौथे अध्याय में देख लिया है। कर्म ‘अकर्म’ कैसे होता है, सो संत-चरणों में बैठने से मालूम होगा, यह भी भगवान ने चौथे अध्याय के अंत में बता दिया है। इस अकर्म-स्थिति का वर्णन करने के लिए वाणी अपर्याप्त है।
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