चौथा अध्याय
कर्मयोग सहकारी साधना: विकर्म
16. अकर्म की कला संतो से पूछें
10. यह कर्म का अकर्म कैसे होता है? यह कला किसके पास देखने को मिलेगी? संतो के पास। इस अध्याय के अंत में भगवान कहते हैं- "संतों के पास जाकर बैठो और उनसे शिक्षा लो।" कर्म का अकर्म कैसे हो जाता है, इसका वर्णन करने में भाषा समाप्त हो जाती है। उसकी पूरी कल्पना कर पाने के लिए संतों के चरणों में बैठना चाहिए। परमेश्वर का वर्णन भी तो है शांताकारं भुजगशयनम्। परमेश्वर हजार फनों के शेषनाग पर सोते हुए भी शांत है। इसी तरह संत हजारों कर्म करते हुए भी रत्ती भर क्षोभ-तरंग अपने मानस-सरोवर में नहीं उठने देते। यह खूबी संतों के पास गये बिना समझ में नहीं आ सकती। 11. आज के जमाने में पुस्तकें बहुत सस्ती हो गयी हैं। एक-एक, दो-दो आने में गीता, ‘मनाचे श्लोक’[1] आदि मिल जाते हैं। गुरुओं की भी कमी नहीं। शिक्षा उदार और सस्ती है। विद्यापीठ ज्ञान की खैरात बांटते हैं। परन्तु ज्ञानामृत भोजन की डकार किसी को नहीं आती। पुस्तकों के इस अंबार को देखकर संत सेवा की जरूरत दिन पर दिन ज्यादा महसूस हो रही है। पुस्तकों की मजबूत कपड़े की जिल्द के बाहर ज्ञान आता नहीं। ऐसे अवसर पर मुझे एक अभंग हमेशा याद आ जाता है- काम क्रोध आड पडिले पर्वत। राहिला अनंत पैलीकडे॥ 'काम-क्रोध के पहाड़ रास्ते में खड़े हैं। भगवान उनके उस पार है।' काम-क्रोध रूपी पहाड़ों के परले पार नारायण रहता है उसी तरह इन पुस्तकों की राशि के पीछे ज्ञान-राजा छिपकर बैठा है। पुस्तकालयों और ग्रंथालयों की भरमार होने पर भी अब तक मनुष्य सब जगह संस्कारहीन और ज्ञानहीन बंदर जैसा दिखायी देता है। बड़ौदा में बहुत बड़ी लाइब्रेरी है। एक बार एक सज्जन एक बड़ी सी पुस्तक लेकर जा रहे थे। उसमें तस्वीरें थीं। वे उसे यह समझकर ले जा रहे थे कि वह अंग्रेजी पुस्तक है। मैंने पूछा- "कौन-सी पुस्तक है?" उन्होंने पुस्तक आगे बढ़ा दी। मैने कहा- "यह तो फ्रेंच है", तो उन्होंने कहा "अच्छा, फ्रेंच आ गयी?" परम पवित्र रोमन लिपि, बढ़िया तस्वीरें, सुंदर जिल्द, फिर ज्ञान की क्या कमी। 12. अंग्रेजी में हर साल कोई दस हजार नयी किताबें तैयार होती हैं। यही हाल दूसरी भाषाओं का समझिए। ज्ञान का इतना प्रसार होते हुए भी मनुष्य का दिमाग अब तक खोखला ही कैसे बना हुआ है? कोई कहता है, स्मरणशक्ति कमज़ोर हो गयी है। कोई कहता है, एकाग्रता नहीं सधती। कोई कहता है, जो भी पढ़ते हैं, सच ही मालूम होता है। कोई कहता है, अजी, विचार करने को फुरसत ही नहीं मिलती! श्रीकृष्ण कहते हैं- "अर्जुन, बहुत कुछ सुन-सुनकर चक्कर में पड़ी तेरी बृद्धि जब तक स्थिर नहीं होगी, तब तक तुझे योगप्राप्ति नहीं हो सकती। सुनना और पढ़ना अब बंद करके संतों की शरण ले! वहाँ जीवन-ग्रन्थ पढ़ने को मिलेगा। वहाँ का ‘मौन व्याख्यान’ सुनकर तू 'छिन्न-संशय' हो जायेगा। वहाँ जाने से तुझे मालूम हो जायेगा कि लगातार सेवा-कर्म करते हुए भी हम अत्यंत शान्त कैसे रहें; और बाहर से कर्म का जोर रहते हुए भी हृदय में अखंड संगीत की सितार कैसे मिलायी जा सकती है।"[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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