गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 232

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साम्यसूत्र-वृत्तिः
अध्याय 2
(5) छंदसि बहुलम् - 3

1. अर्जुनं निमित्तीकृत्य
2. नित्यनूतन-परिभाषा
3. ‘द’ कारार्थवत्

(6) देहेन स्वधर्मः - 2

4. स्वघर्मः सहजः सुकरः
5. देहबुद्ध्या तु दुष्करो भवति

(7) मुक्तात्मा - 7

6. तत्त्वज्ञानं प्रथममावश्यकम्
7. नाहं देहः
8. दैहो वस्त्रवत्
9. मरणशब्दमपि न सहते पामरः
10. आत्म-विस्तारः कर्तव्यः
11. आत्मा मोचनोत्सुकः
12. सारांशत्रयी

(8) युक्त्या समन्वयः - 3

13. फलाशा त्यक्तव्या
14. समत्वं कुशलो गुणः
15. कर्मण्येवानंदनिर्झरः

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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