गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 229

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अठारहवां अध्याय
उपसंहार
फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद
107. सिद्ध पुरुष की तिहरी भूमिका

29. इस भावावस्था की ही तरह ज्ञानी पुरुष की एक क्रियावस्था भी होती है। ज्ञानी पुरुषः स्वभावतः क्या करेगा? वह जो कुछ करेगा, सात्त्विक ही होगा। यद्यपि मनुष्य-देह की मर्यादा अभी उसके साथ लगी है, तब भी उसका सारा शरीर, उसकी सारी इंद्रियां सात्त्विक बन गयी हैं, जिससे उसकी सारी क्रियाएं सात्त्विक ही होंगी। व्यावहारिक दृष्टि से देखेंगे, तो सात्त्विकता चरम सीमा उसके व्यवहार में दिखायी देगी। विश्वात्मा भाव की दृष्टि से देखेंगे, तो मानो त्रिभुवन के पाप-पुण्य वह करता है और इतने पर भी वह अलिप्त रहता है; क्योंकि इस चिपके हुए शरीर को तो उसके उतारकर फेंक दिया होता है। क्षुद्र देह को उतारकर फेंकने पर ही तो वह विश्व-रूप होगा।

30. भावावस्था और क्रियावस्था के अतिरिक्त एक तीसरी स्थिति भी ज्ञानी पुरुष की है और वह है, ज्ञानावस्था। इस अवस्था में न वह पाप सहन करता है, न पुण्य। सभी झटककर फेंक देता है। इस अखिल विश्व को सलाई लगाकर जला डालने के लिए वह तैयार हो जाता है। एक भी कर्म की जिम्मेदारी लेने को वह तैयार नहीं होता। उसका स्पर्श ही उसे सहन नहीं होता। ज्ञानी पुरुष की मोक्ष दशा में- साधना की पराकाष्ठा की दशा में- ये तीन स्थितियां संभव हैं।

31. यह अक्रियावस्था, अंतिम दशा कैसे प्राप्त हो? हम जो-जो भी कर्म करते हैं, उनका कर्तव्य अपने सिर पर न लेने का अभ्यास करना चाहिए। ऐसा मनन करो कि ‘मैं तो निमित्तमात्र हूं, कर्म का कर्तव्य मुझ पर नहीं है।’ पहले इस अकर्तृत्ववाद की भूमिका नम्रता से ग्रहण करो। किंतु इसी से संपूर्ण कर्तृत्व चला जायेगा, सो नहीं। धीरे-धीरे इस भावना का विकास होता जायेगा। पहले तो ऐसा अनुभव होने दो कि मैं अति तुच्छ हूं, उसके हाथ का खिलौना-कठपुतली हूं, वह मुझे नचाता है। इसके बाद यह मानने का प्रयत्न करों कि यह जो कुछ भी किया जाता है, वह शरीरजात है; मेरा उससे स्पर्श तक नहीं। ये सब क्रियाएं इस शव की हैं, परन्तु मैं शव नहीं हूँ। ‘मैं शव नहीं, शिव हूं’ ऐसी भावना करते रहो।

देह के लेप से लेशमात्र भी लिप्त न हों। ऐसा हो जाने पर फिर मानो देह से कोई संबंध नहीं है, ऐसी ज्ञानी की अवस्था प्राप्त हो जायेगी। उस अवस्था में फिर ऊपर बतायी तीन अवस्थाएं होंगी। एक उसकी क्रियावस्था, जिसमें उसके द्वारा अत्यंत निर्मल और आदर्श क्रिया होगी। दूसरी भावावस्था, जिसमें त्रिभुवन के पाप-पुण्य मैं करता हूं, ऐसा उसे अनुभव होगा, परंतु उनका लेशमात्र भी स्पर्श नहीं होगा; और तीसरी उसकी ज्ञानावस्था, जिसमें वह लेशमात्र भी कर्म अपने पास नहीं रहने देगा। सब कर्म भस्मसात कर देगा। इन तीनों अवसथाओं के द्वारा ज्ञानी पुरुष का वर्णन किया जा सकता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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