अठारहवां अध्याय
उपसंहार
फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद
105. फलत्याग का कुल मिलाकर फलितार्थ
17. फल-त्याग की कल्पना का जो विकास हम करते आये हैं, उससे निम्नलिखित अर्थ निकला-
18. प्रकृति बहती रहनी चाहिए। निर्झर बहता नहीं रहेगा, तो उससे दुर्गंध आने लगेगी। यही हाल आश्रम-धर्म का है। मनुष्य पहले कुटुंब को स्वीकार करता है। अपने विकास के लिए वह स्वयं को कुटुंब के बंधनों में बांध लेता है। यहाँ वह तरह-तरह के अनुभव प्राप्त करता है; परन्तु कुटुंबी बनकर वह सदा के लिए उसी में जकड़ जायेगा तो विनाश होगा। कुटुंब में रहना जो पहले धर्म रूप था, वही अधर्म रूप हो जायेगा; क्योंकि अब वह धर्म बंधनकारी हो गया। बदलने वाले धर्म को आसक्ति के कारण न छोड़ें तो भयानक स्थिति उत्पन्न होगी। अच्छी चीज की भी आसक्ति नहीं होनी चाहिए। आसक्ति से घोर अनर्थ होता है। क्षय के कीटाणु यदि भूल से भी फेफड़ों में चले जाते हैं, सारा जीवन भीतर से खा डालते हैं। उसी तरह आसक्ति के कीटाणु भी असावधानी से सात्त्विक कर्म में घुस जायेंगे, तो स्वधर्म सड़ने लगेगा। उस सात्त्विक स्व-धर्म में भी राजस और तामस की दुर्गंध आने लगेगी। अतः कुटुंब रूपी यह बदलने वाला स्व-धर्म यथा समय छूट जाना चाहिए। यह बात राष्ट्र धर्म के लिए भी है। राष्ट्र-धर्म में अगर आसक्ति आ जाये और केवल अपने ही राष्ट्र के हित का विचार हम करने लगें, तो ऐसी राष्ट्र-भक्ति भी बड़ी भयंकर वस्तु होगी। इससे आत्म-विकास रुक जायेगा। चित्त में आसिक्त घर कर लेगी और अद्यःपात होगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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