गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 224

Prev.png
अठारहवां अध्याय
उपसंहार
फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद
105. फलत्याग का कुल मिलाकर फलितार्थ

17. फल-त्याग की कल्पना का जो विकास हम करते आये हैं, उससे निम्नलिखित अर्थ निकला-

  1. राजस और तामस कर्मों का संपूर्ण त्याग।
  2. उस त्याग का भी फल-त्याग। उसका भी अहंकार न हो।
  3. सात्त्विक कर्मों का स्वरूपतः त्याग न कते हुए केवल फल-त्याग।
  4. सात्त्विक कर्म, जो फल-त्यागपूर्वक करने होते हैं, वे सदोष हों तो भी करना।
  5. सतत फल-त्यागपूर्वक उन सात्त्विक कर्मों को करते रहने से चितत शुद्ध होता जायेगा और तीव्र से सौम्य, सौम्य से सूक्ष्म और सूक्ष्म से शून्य इस तरह क्रियामात्र झड़ जायेगी।
  6. क्रिया लुप्त हो जायेगी, लेकिन कर्म- लोकसंग्रह रूपी कर्म- होते ही रहेंगे।
  7. सात्त्विक कर्म भी, जो स्वाभाविक रूप से प्राप्त हों, वे ही करें। जो सहज प्राप्त न हों, वे कितने ही अच्छे लगें, तो भी उन्हें दूर ही रखें। उनका मोह न करें।
  8. सहजप्राप्त स्वधर्म भी फिर दो प्रकार का होता है- बदलने वाला और न बदलने वाला। वर्ण-धर्म नहीं बदलता, पर आश्रम-धर्म बदलता रहता है। बदले वाला स्वधर्म रहना चाहिए। उससे प्रकृति विशुद्ध रहेगी।

18. प्रकृति बहती रहनी चाहिए। निर्झर बहता नहीं रहेगा, तो उससे दुर्गंध आने लगेगी। यही हाल आश्रम-धर्म का है। मनुष्य पहले कुटुंब को स्वीकार करता है। अपने विकास के लिए वह स्वयं को कुटुंब के बंधनों में बांध लेता है। यहाँ वह तरह-तरह के अनुभव प्राप्त करता है; परन्तु कुटुंबी बनकर वह सदा के लिए उसी में जकड़ जायेगा तो विनाश होगा। कुटुंब में रहना जो पहले धर्म रूप था, वही अधर्म रूप हो जायेगा; क्योंकि अब वह धर्म बंधनकारी हो गया। बदलने वाले धर्म को आसक्ति के कारण न छोड़ें तो भयानक स्थिति उत्पन्न होगी। अच्छी चीज की भी आसक्ति नहीं होनी चाहिए। आसक्ति से घोर अनर्थ होता है। क्षय के कीटाणु यदि भूल से भी फेफड़ों में चले जाते हैं, सारा जीवन भीतर से खा डालते हैं। उसी तरह आसक्ति के कीटाणु भी असावधानी से सात्त्विक कर्म में घुस जायेंगे, तो स्वधर्म सड़ने लगेगा। उस सात्त्विक स्व-धर्म में भी राजस और तामस की दुर्गंध आने लगेगी। अतः कुटुंब रूपी यह बदलने वाला स्व-धर्म यथा समय छूट जाना चाहिए। यह बात राष्ट्र धर्म के लिए भी है। राष्ट्र-धर्म में अगर आसक्ति आ जाये और केवल अपने ही राष्ट्र के हित का विचार हम करने लगें, तो ऐसी राष्ट्र-भक्ति भी बड़ी भयंकर वस्तु होगी। इससे आत्म-विकास रुक जायेगा। चित्त में आसिक्त घर कर लेगी और अद्यःपात होगा।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः