गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 223

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अठारहवां अध्याय
उपसंहार
फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद
104. साधक के लिए स्वधर्म का खुलासा

16. फिर स्वधर्म के भी दो भाग हैं। वह बदलने वाला भाग, दूसरा न बदलने वाला। मैं आज जो हूं, वह कल नहीं और कल जो हूँ वह परसों नहीं। मैं निरंतर बदल रहा हूँ। बचपन का स्वधर्म होता है, केवल संवर्धन। यौवन में मुझमें भरपूर-कर्म शक्ति रहेगी, तो उसके द्वारा मैं समाज की सेवा करूंगा। प्रौढ़ावस्था में मेरे ज्ञान का लाभ दूसरों को मिलेगा। इस तरह कुछ स्वधर्म तो बदलता रहने वाला है और कुछ न बदलने वाला। इन्हीं को यदि पुराने शास्त्रीय नामों से पुकारना है, तो हम कहेंगे- ‘मनुष्य को वर्ण-धर्म है और आश्रम-धर्म है।’ वर्ण-धर्म बदलता नहीं, आश्रम-धर्म बदलता रहता है।

आश्रम-धर्म बदलता है- इसका अर्थ यह है कि ब्रह्मचारी-पद सार्थक करके मैं गृहस्थाश्रम में प्रवेश करता हूँ। गृहस्थाश्रम से वानप्रस्थाश्रम में और वानप्रस्थाश्रम से संन्यास में जाता हूँ। इस तरह आश्रम-धर्म बदलता रहता है तब भी, वर्ण-धर्म बदला नहीं जा सकता। अपनी नैसर्गिक मर्यादा मैं छोड़ नहीं सकता। ऐसा प्रयत्न ही मिथ्या है। तुमें जो ‘तुमपन’ है, उसे तुम छोड़ नहीं सकते। इसी कल्पना पर वर्ण-धर्म की योजना की गयी है। वर्ण-धर्म की कल्पना बड़ी मधुर है। वर्ण-धर्म बिलकुल अटल है क्या? जैसे बकरी का बकरीपन, गाय का गायपन है, वैसे ही क्या ब्राह्मण का ब्राह्मणत्व, क्षत्रिय का क्षत्रियत्व है? मैं मानता हूँ कि वर्ण-धर्म इतना पक्का नहीं है। लेकिन हमें इसका मर्म समझ लेना चाहिए। ‘वर्ण-धर्म’ का उपयोग जब सामाजिक व्यवस्था की एक युक्ति के रूप में किया जाता है, तब उसमें अपवाद अवश्य होगा। ऐसा अपवाद मानना ही पड़ता है। गीता ने भी इस अपवाद को माना है। सारांश, इन दोनों प्रकारों के धर्मों को पहचानकर अवांतर धर्म कितना ही सुंदर और मोहक प्रतीत हो, तो भी उसे टालना चाहिए।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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