अठारहवां अध्याय
उपसंहार
फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद
104. साधक के लिए स्वधर्म का खुलासा
16. फिर स्वधर्म के भी दो भाग हैं। वह बदलने वाला भाग, दूसरा न बदलने वाला। मैं आज जो हूं, वह कल नहीं और कल जो हूँ वह परसों नहीं। मैं निरंतर बदल रहा हूँ। बचपन का स्वधर्म होता है, केवल संवर्धन। यौवन में मुझमें भरपूर-कर्म शक्ति रहेगी, तो उसके द्वारा मैं समाज की सेवा करूंगा। प्रौढ़ावस्था में मेरे ज्ञान का लाभ दूसरों को मिलेगा। इस तरह कुछ स्वधर्म तो बदलता रहने वाला है और कुछ न बदलने वाला। इन्हीं को यदि पुराने शास्त्रीय नामों से पुकारना है, तो हम कहेंगे- ‘मनुष्य को वर्ण-धर्म है और आश्रम-धर्म है।’ वर्ण-धर्म बदलता नहीं, आश्रम-धर्म बदलता रहता है। आश्रम-धर्म बदलता है- इसका अर्थ यह है कि ब्रह्मचारी-पद सार्थक करके मैं गृहस्थाश्रम में प्रवेश करता हूँ। गृहस्थाश्रम से वानप्रस्थाश्रम में और वानप्रस्थाश्रम से संन्यास में जाता हूँ। इस तरह आश्रम-धर्म बदलता रहता है तब भी, वर्ण-धर्म बदला नहीं जा सकता। अपनी नैसर्गिक मर्यादा मैं छोड़ नहीं सकता। ऐसा प्रयत्न ही मिथ्या है। तुमें जो ‘तुमपन’ है, उसे तुम छोड़ नहीं सकते। इसी कल्पना पर वर्ण-धर्म की योजना की गयी है। वर्ण-धर्म की कल्पना बड़ी मधुर है। वर्ण-धर्म बिलकुल अटल है क्या? जैसे बकरी का बकरीपन, गाय का गायपन है, वैसे ही क्या ब्राह्मण का ब्राह्मणत्व, क्षत्रिय का क्षत्रियत्व है? मैं मानता हूँ कि वर्ण-धर्म इतना पक्का नहीं है। लेकिन हमें इसका मर्म समझ लेना चाहिए। ‘वर्ण-धर्म’ का उपयोग जब सामाजिक व्यवस्था की एक युक्ति के रूप में किया जाता है, तब उसमें अपवाद अवश्य होगा। ऐसा अपवाद मानना ही पड़ता है। गीता ने भी इस अपवाद को माना है। सारांश, इन दोनों प्रकारों के धर्मों को पहचानकर अवांतर धर्म कितना ही सुंदर और मोहक प्रतीत हो, तो भी उसे टालना चाहिए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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