गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 221

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अठारहवां अध्याय
उपसंहार
फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद
103. क्रिया से छूटने की सच्ची रीति

11. कर्म और क्रिया दोनों में अंतर है। मान लें कि कहीं पर खूब हो-हल्ला मचा हुआ है और उसे बंद करना है। एक सिपाही स्वयं जोर से चिल्लाकर कहता है- ‘शोर बंद करो।’ वहाँ का शोर बंद करने के लिए उसे जोर से चिल्लाने की तीव्र क्रिया करनी पड़ी। दूसरा कोई आकर चुपचाप खड़ा रहेगा और केवल अपनी अंगुली उठाकर इशारा करेगा। इतने से ही लोग शांत हो जायेंगे। तीसरे व्यक्ति के केवल वहाँ उपस्थित होने मात्र से ही शांति छा जायेगी। एक को तीव्र क्रिया करनी पड़ी। दूसरे की क्रिया कुछ सौम्य थी और तीसरे की सूक्ष्म। क्रिया उत्तरोत्तर कम होती गयी, किंतु लोगों को शांत करने का काम समान रूप से हुआ। जैसे-जैसे चित्त-शुद्धि होती जायेगी, वैसे-वैसे क्रिया की तीव्रता में कमी होगी। तीव्र से सौम्य, सौम्य से सूक्ष्म और सूक्ष्म से शून्य होती जायेगी। कर्म भिन्न है और क्रिया भिन्न। कर्ता को जो अत्यंत इष्ट हो, वह कर्म-यही कर्म की व्याख्या। कर्म की प्रथमा और द्वितीया विभक्ति होती है, तो क्रिया के लिए स्वतंत्र क्रियापद लगाना पड़ता है।

कर्म और क्रियाओं में जो अंतर है, उसे समझ लीजिए। क्रोध आने पर कोई बहुत बोलकर और कोई बिलकुल ही न बोलकर अपना क्रोध प्रकट करता है। ज्ञानी पुरुष लेशमात्र भी क्रिया नहीं करता, किंतु कर्म अनंत करता है। उसका अस्तित्वमात्र ही अपार लोक-संग्रह कर सकता है। ज्ञानी पुरुष की तो केवल उपस्थिति ही पर्याप्त है। उसके हाथ-पैर आदि अवयव कुछ कार्य न करते हों, तो भी वह काम करता है। क्रिया सूक्ष्म होती जाती है और कर्म उलटे बढ़ते जाते हैं। विचार की यह धारा और आगे ले जायें एवं चित्त परिपूर्ण शुद्ध हो जाये, तो अंत में क्रिया शून्य रूप होकर कर्म अनंत होते रहेंगे, ऐसा कह सकते हैं। पहले तीव्र, फिर तीव्र से सौम्य, सौम्य से सूक्ष्म और सूक्ष्म से शून्य इस तरह अपने-आप क्रियाशून्यत्व प्राप्त हो जायेगा। परंतु तब अनंत कर्म स्वतः होते रहेंगे।

12. बाह्यरूपेण कर्म हटाने से वे दूर नहीं होंगे। निष्कामतापूर्वक कर्म करते हुए धीरे-धीरे उसका अनुभव होगा। कवि ब्राऊनिंग ने ‘ढोंगी पोप’ शीर्षक से एक कविता लिखी है। एक आदमी ने पोप से कहा- ‘तुम अपने को इतना सजाते क्यों हो? ये चोगे किसलिए? ये ऊपरी ढोंग क्यों? यह गंभीर मुद्रा किसलिए?‘ उसने उत्तर दिया- ‘ मैं यह सब क्यों करता हूं, सो सुनो। संभव है, यह नाटक, यह नकल करते-करते किसी दिन अनजाने में ही मुझमें श्रद्धा का संचार हो जाये।’ इसलिए निष्काम क्रिया करते रहना चाहिए। धीरे-धीरे निष्क्रियत्व भी प्राप्त हो जायेगा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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