सत्रहवां अध्याय
परिशिष्ट-2
साधक का कार्यक्रम
98. अविरोधी जीवन की गीता की योजना
21. कोई व्यक्ति को महत्त्व देता है, तो कोई समाज को। इसका कारण यह है कि समाज में जीवन-कलह की कल्पना फैल गयी है। परंतु क्या जीवन कलह के लिए है? इससे तो फिर हम मर क्यों नहीं जाते? कलह तो मरने के लिए है। तभी तो हम स्वार्थ और परमार्थ में भेद डालते हैं। जिसने पहले-पहल यह कल्पना की कि स्वार्थ और परमार्थ में अंतर है, उसकी बलिहारी है! जो वस्तु वास्तव में है ही नहीं, उसके अस्तित्व का आभास देने की शक्ति जिसकी बुद्धि में थी, उसकी तारीफ करने को जी चाहता है। जो भेद नहीं है, वह उसने खड़ा किया और उसे जनता को सिखाया, इस बात का आश्चर्य होता है। चीन की दीवार के जैसा ही यह प्रकार है। यह मानना वैसा ही है, जैसा कि क्षितिज की मर्यादा बांधना और फिर यह मानना कि उसके पार कुछ नहीं है। इन सबका कारण है, आज यज्ञमय जीवन का अभाव! इसी से व्यक्ति और समाज में भेद उत्पन्न हो गया है। परंतु व्यक्ति और समाज में वास्तविक भेद नहीं किया जा सकता। किसी कमरे के दो भाग करने के लिए अगर कोई पर्दा लगाया जाये और पर्दा हवा से उड़कर आगे-पीछे होने लगे, तो कभी यह भाग बड़ा मालूम होता है और कभी वह। हवा की लहर पर उस कमरे के भाग अवलंबित रहते हैं। वे स्थायी, पक्के नहीं हैं। गीता इन झगड़ों से परे है। ये झगड़े काल्पनिक हैं। गीता तो कहती है कि अंतःशुद्धि की मर्यादा रखो। फिर व्यक्ति और समाज के हितों में कोई विरोध उत्पन्न नहीं होगा। एक-दूसरे के हित में कोई बाधा नहीं होगी। इस बाधा को, इस विरोध को दूर करना ही गीता की विशेषता है। गीता के इस नियम का पालन करने वाला यदि एक भी व्यक्ति मिल जाये, तो अकेले उसी से सारा राष्ट्र सम्पन्न हो जायेगा। राष्ट्र का अर्थ है- राष्ट्र के व्यक्ति। जिस राष्ट्र में ऐसे ज्ञान और आचार संपन्न व्यक्ति नहीं हैं, उसे राष्ट्र कैसे मानेंगे? भारत क्या है? भारत यानि रवींद्रनाथ, भारत यानि गांधी या इसी तरह के पांच-दस नाम। बाहर का संसार भारत की कल्पना इन्हीं पांच-दस व्यक्तियों पर से करता है। प्राचीन काल के दो-चार, मध्यकाल के चार-पांच और आज के आठ-दस व्यक्ति ले लीजिए और उनमें हिमालय, गंगा आदि को मिला दीजिए। बस, हो गया भारत। यही है भारत की व्याख्या। बाकी सब है इस व्याख्या का भाष्य। भाष्य यानि सूत्रों का विस्तार। दूध का दही और दही का छाछ-मक्खन! झगड़ा दूध-दही, छाछ-मक्खन का नहीं है। दूध का कस देखने के लिए उसमें मक्खन कितना है, यह देखा जाता है। इसी प्रकार समाज का कस उसके व्यक्तियों पर से निकाला जाता है। व्यक्ति और समाज में कोई विरोध नहीं है। विरोध हो भी कैसे सकता है? व्यक्ति-व्यक्ति में भी विरोध नहीं होना चाहिए। यदि एक व्यक्ति से दूसरा व्यक्ति अधिक संपन्न हो जाये, तो इससे बिगड़ेगा क्या? हां, कोई भी विपन्न अवस्था में न हो और संपत्ति वालों की संपत्ति समाज के काम आती रहे, तो बस। मेरी दाहिनी जेब में पैसे हैं तो क्या, दोनों जेबें आखिर मेरी ही हैं! कोई व्यक्ति संपन्न होता है, तो उससे मैं संपन्न होता हूं, राष्ट्र संपन्न होता है। ऐसी युक्ति साधी जा सकती है। परंतु हम भेद खड़े करते हैं। धड़ और सिर अलग-अलग हो जायेंगे, तो दोनों मर जायेंगे। अतः व्यक्ति और समाज में भेद मत करो। गीता सिखाती है कि एक ही क्रिया स्वार्थ और परमार्थ को किस प्रकार अविरोधी बना देती है। मेरे इस कमरे की हवा में और बाहर की अनंत हवा में कोई विरोध नहीं है। यदि मैं इनमें विरोध की कल्पना करके कमरा बंद कर लूंगा, तो दम घुटकर मर जाऊंगा अविरोध की कल्पना करके मुझे कमरा खोलने दो, तो वह अनंत हवा भीतर आ जायेगी। जिस क्षण मैं अपनी जमीन और अपना घर का टुकड़ा औरों से अलग करता हूं, उसी क्षण मैं अनंत संपत्ति से वंचित हो जाता हूँ। मेरा वह छोटा-सा घर जलता है, गिरता है, तो मैं ऐसा समझकर कि मेरा सर्वस्व चला गया, रोने-पीटने लग जाता हूँ। परंतु ऐसा क्यों करना चाहिए? क्यों रोना-पीटना चाहिए? पहले तो संकुचित कल्पना करें और फिर रोयें! ये पांच सौ रूपये मेरे हैं, ऐसा कहा कि सृष्टि की अपार संपत्ति से मैं दूर हुआ। ये दो भाई मेरे हैं, ऐसा समझा कि संसार के असंख्य भाई मुझसे दूर हो गये- इसका हमें ध्यान नहीं रहता। मनुष्य अपने को कितना संकुचित बना लेता है! वास्वत में तो मनुष्य का स्वार्थ ही परार्थ होना चाहिए। गीता ऐसा ही सरल-सुंदर मार्ग दिखा रही है, जिससे व्यक्ति और समाज में उत्तम सहयोग हो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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