सत्रहवां अध्याय
परिशिष्ट-2
साधक का कार्यक्रम
97. आहार-शुद्धि
18. सारांश यह कि आज हमारी सामुदायिक आहार-शुद्धि इतनी हुई है। अनंत त्याग करके हमारे पूर्वजों ने जो कमाई की है, उसे गंवाओं मत! भारतीय संस्कृति की इस विशेषता को डुबाओ मत! हमें जैसे-तैसे जीवित नहीं रहना है। जिसे किसी-न-किसी तरह जीवित रहना है, उसका काम बड़ा सरल है। पशु भी किसी-न-किसी तरह जी ही लेते हैं। तब क्या, जैसे पशु, वैसे ही हम? पशु में और हममें अंतर है। उस अंतर को बढ़ाना ही संस्कृति-वर्धन कहा जाता है। हमारे राष्ट्र ने मांसाहार-त्याग का बहुत बड़ा प्रयोग किया। उसे और आगे ले जाओ। कम-से-कम जिस मंजिल तक हम पहुँच चुके हैं, उससे पीछे तो मत हटो! यह सूचना देने का कारण यह है कि आजकल कितने ही लोगों को मांसाहार की इष्टता प्रतीत होने लगी है। आज पूर्वी और पश्चिमी संस्कृतियों का एक-दूसरे पर प्रभाव पड़ रहा है। मेरा विश्वास है कि अंत में इसका परिणाम अच्छा ही होगा। पाश्चात्य संस्कृति के कारण हमारी जड़ श्रद्धा हिलती जा रही है। यदि अंध-श्रद्धा डिग गयी, तो कुछ हानि नहीं। जो अच्छा होगा, वह टिकेगा और बुरा जलकर राख हो जायेगा। लेकिन अंध-श्रद्धा जाने पर उसके स्थान पर अंध-अश्रद्धा नहीं उत्पन्न होनी चाहिए। ऐसा नहीं कि केवल श्रद्धा ही अंधी होती हो। केवल श्रद्धा ही ‘अंध’ विशेषण का ठेका नहीं लिया है। अश्रद्धा भी अंधी हो सकती है। मांसाहार के बारे में आज फिर से विचार शुरू हो गया है। जो हो, कोई नवीन विचार सामने आता है, तो मुझ बड़ा आनंद होता है। लगता है कि लोग जग रहे हैं और धक्के दे रहे हैं। जागृति के लक्षण देखकर मुझे अच्छा लगता है। लेकिन यदि जगकर आखें मलते हुए वैसे ही चल पडेंगे, तो गिर पड़ने की आशंका रहेगी। अतः जब तक पूरे-पूरे न जग जायें, अच्छी तरह आंख खोलकर देखने न लगें, तब तक हाथ-पैर को मर्यादा में ही रखना अच्छा है। विचार खूब कीजिए, आड़ा-तिरछा, उलटा-सीधा, चारों ओर से खूब सोचिए। धर्म पर विचार की कैंची चलाइए। इस विचार रूपी कैंची से जो धर्म कट जाये, समझो कि वह तीन कौड़ी का ही था। इस तरह जो टुकड़े कट-छट जायें, उन्हें जाने दो। तुम्हारी कैंची से जो न कटे, बल्कि उससे उलटे तुम्हारी कैंची ही टूट जाये, वही धर्म सच्चा है। धर्म को विचारों से डर नहीं। अतः विचार तो करो, परंतु काम एकदम मत कर डालो। अधजगे रहकर यदि कुछ काम करोगे, तो गिरोगे। विचार जोरों से चले, फिर भी कुछ देर आचार को संभाले रखो। अपनी कृति पर संयम रखो। अपनी पहले की पुण्याई मत गंवा बैठो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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