सत्रहवां अध्याय
परिशिष्ट-2
साधक का कार्यक्रम
96. साधना का सात्त्विकीकरण
10. परंतु हम अपनी सब क्रियाएं ईश्वर को कब अर्पण कर सकेंगे? तभी, जबकि वे सात्त्विक होंगी। जब हमारे सब कर्म सात्त्विक होंगे, तभी हम उन्हें ईश्वरार्पण कर सकेंगे। यज्ञ, दान और तप, सब सात्त्विक होने चाहिए। क्रियाओं को सात्त्विक कैसे बनाना, इसका तत्त्व हमने चौदहवें अध्याय में देख लिया है। इस अध्याय में गीता उस तत्त्व का विनियोग बता रही है। 11. सात्त्विकता की यह योजना करने में गीता उद्देश्य दुहरा है कि बाहर से यज्ञ, दान और तपरूप जो मेरी ‘विश्व-सेवा’ चल रही है, उसी को भीतर से ‘आध्यात्मिक साधना’ का नाम दिया जा सके। सृष्टि की सेवा और साधना के भिन्न-भिन्न कार्यक्रम नहीं होने चाहिए। सेवा और साधना, ये दो भिन्न बातें हैं ही नहीं। दोनों के लिए एक ही प्रयत्न, एक ही कर्म! इस प्रकार जो कर्म किया जाये, उसे भी अंत में ईश्वरार्पण करना है। सेवा + साधना + ईश्वरार्पणता- यह योग एक ही क्रिया से सिद्ध होना चाहिए। 12. यज्ञ को सात्त्विक बनाने के लिए दो बातों की आवश्यकता है- निष्फलता का अभाव और सकामता का अभाव। ये दो बातें यज्ञ में होनी चाहिए। यज्ञ में यदि सकामता होगी, तो वह राजस यज्ञ हो जायेगा और यदि निष्फलता होगी, तो वह तामस यज्ञ हो जायेगा। सूत कातना यज्ञ है, परंतु यदि सूत कातते हुए हमने उसमें अपनी आत्मा नहीं उड़ेली, और हमें चित्त की एकाग्रता नहीं सधी, तो वह सूत्र यज्ञ जड़ हो जायेगा। बाहर से हाथ काम कर रहे हैं, उस समय अंदर से मन का मेल नहीं है, तो वह सारी क्रिया विधिहीन हो जायेगी। विधिहीन कर्म जड़ हो जाते हैं। विधिहीन क्रिया में तमोगुण आ जाता है। उस क्रिया से उत्कृष्ट वस्तु का निर्माण नहीं हो सकता। उसमें से फल की निष्पत्ति नहीं होगी। यज्ञ में सकामता न हो, तो भी उससे उत्कृष्ट फल मिलना चाहिए। कर्म में यदि मन न हो, आत्मा न हो, तो वह कर्म बोझ सा हो जायेगा। फिर उसमें उत्कृष्ट फल कहां? यदि बाहर का काम बिगड़ा, तो यह निश्चित समझो कि अंदर मन का योग नहीं था। अतः कर्म में अपनी आत्मा उड़ेलो। आंतरिक सहयोग रखो। सृष्टि संस्था का ऋण चुकाने के लिए हमें उत्कृष्ट फलोत्पत्ति करनी चाहिए। कर्मो में फलहीनता न आने पाये, इसीलिए आंतरिक मेल की विधियुक्तता आवश्यक है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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