गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 203

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सत्रहवां अध्याय
परिशिष्ट-2
साधक का कार्यक्रम
95. उसके लिए त्रिविध क्रियायोग

4. इस अर्थ को समझने के लिए पहले हम यह देखें कि ‘यज्ञ’ का अर्थ क्या है। सृष्टि-संस्था से हम प्रतिदिन काम लेते हैं। सौ आदमी यदि एक जगह रहते है, तो दूसरे दिन वहाँ की सारी सृष्टि दूषित हुई दिखायी देती है। वहाँ की हवा हम दूषित कर देते हैं, जगह गंदी कर देते हैं। अन्न खाते हैं और सृष्टि को भी छिजाते हैं। सृष्टि-संस्था की इस छीजन की हमें पूर्ति करनी चाहिए। इसीलिए यज्ञ-संस्था का निर्माण हुआ है।


यज्ञ का उद्देश्य क्या है? सृष्टि की जो हानि हुई, उसे पूरा करना। आज हजारों वर्षों से हम जमीन जोतते आ रहे हैं, उससे जमीन का कस कम होता जा रहा है। यज्ञ कहता है- ‘पृथ्वी को उसका कस वापस लौटाओ, जमीन में हल चलाओ, उसमें सूर्य की रोशनी पैठने दो। उसमें खाद डालो।’ छीजन की पूर्ति करना, यह है यज्ञ का एक हेतु। दूसरा हेतु है, उपयोग में लायी हुई वस्तुओं का शुद्धीकरण। हम कुएं का उपयोग करते हैं, जिससे आसपास गंदगी हो जाती है, पानी इकट्ठा हो जाता है। कुएं के पास की यह सृष्टि जो खराब हो गयी है, उसे शुद्ध करना चाहिए। वहाँ का गंदा पानी निकाल डालना चाहिए। कीचड़ दूर कर देना चाहिए। क्षति-पूर्ति करने और सफाई करने के साथ ही वहाँ कुछ प्रत्यक्ष निर्माण-कार्य भी करना चाहिए- यह तीसरी बात भी यज्ञ के अंतर्गत है।

हमने कपड़ा पहना, तो हमें चाहिए कि रोज सूत कातकर फिर नव-निर्माण करें। कपास पैदा करना, अनाज उत्पन्न कराना, सूत कातना, यह भी यज्ञ-क्रिया ही है। यज्ञ में जो कुछ निर्माण करना है, वह स्वार्थ के लिए नहीं, बल्कि हमने जो क्षतिकी है, उसे पूरा करने की कर्तव्य-भावना से वह होना चाहिए। यह परोपकार नहीं है। हम तो पहले से ही कर्जदार हैं। जन्मतः ही अपने सिर पर ऋण लेकर हम आते हैं। इस ऋण को चुकाने के लिए हमें जो कुछ निर्माण करना है, वह यज्ञ अर्थात सेवा है, परोपकार नहीं। उस सेवा से हमें अपना ऋण चुकाना है। हम पद-पद पर सृष्टि का उपयोग करते हैं। अतः उस हानि की पूर्ति करने के लिए, उसकी शुद्धि करने के लिए और नवीन वस्तु उत्पन्न करने के लिए हमें यज्ञ करना होता है।

5. दूसरी संस्था है, हमारा मनुष्य-समाज। मां-बाप, गुरु, मित्र ये सब हमारे लिए मेहनत करते हैं। समाज का यह ऋण चुकाने के लिए दान की व्यवस्था की गयी है। दान का अर्थ है, समाज का ऋण चुकाने के लिए किया गया प्रयोग। दान का अर्थ परोपकार नहीं। समाज से मैंने अपार सेवा ली है। जब मैं इस संसार में आया, तो दुर्बल और असहाय था। इस समाज ने मुझे छोटे से बड़ा किया है। इसलिए मुझे समाज की सेवा करनी चाहिए।

‘परोपकार’ कहते हैं, दूसरे से कुछ न लेकर की हुई सेवा को। परंतु यहाँ तो समाज से पहले ही भरपूर ले चुके हैं। समाज के इस ऋण से मुक्त होने के लिए जो सेवा की जाये, वही दान है। मनुष्य-समाज को आगे बढ़ने में सहायता करना दान है। सृष्टि की हानि पूरी करने के लिए जो श्रम किया जाता है, वह यज्ञ है, और समाज का ऋण चुकाने के लिए तन, मन, धन तथा अन्या साधनों से जो सहायता की जाती है, वह दान है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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