सत्रहवां अध्याय
परिशिष्ट-2
साधक का कार्यक्रम
95. उसके लिए त्रिविध क्रियायोग
4. इस अर्थ को समझने के लिए पहले हम यह देखें कि ‘यज्ञ’ का अर्थ क्या है। सृष्टि-संस्था से हम प्रतिदिन काम लेते हैं। सौ आदमी यदि एक जगह रहते है, तो दूसरे दिन वहाँ की सारी सृष्टि दूषित हुई दिखायी देती है। वहाँ की हवा हम दूषित कर देते हैं, जगह गंदी कर देते हैं। अन्न खाते हैं और सृष्टि को भी छिजाते हैं। सृष्टि-संस्था की इस छीजन की हमें पूर्ति करनी चाहिए। इसीलिए यज्ञ-संस्था का निर्माण हुआ है।
हमने कपड़ा पहना, तो हमें चाहिए कि रोज सूत कातकर फिर नव-निर्माण करें। कपास पैदा करना, अनाज उत्पन्न कराना, सूत कातना, यह भी यज्ञ-क्रिया ही है। यज्ञ में जो कुछ निर्माण करना है, वह स्वार्थ के लिए नहीं, बल्कि हमने जो क्षतिकी है, उसे पूरा करने की कर्तव्य-भावना से वह होना चाहिए। यह परोपकार नहीं है। हम तो पहले से ही कर्जदार हैं। जन्मतः ही अपने सिर पर ऋण लेकर हम आते हैं। इस ऋण को चुकाने के लिए हमें जो कुछ निर्माण करना है, वह यज्ञ अर्थात सेवा है, परोपकार नहीं। उस सेवा से हमें अपना ऋण चुकाना है। हम पद-पद पर सृष्टि का उपयोग करते हैं। अतः उस हानि की पूर्ति करने के लिए, उसकी शुद्धि करने के लिए और नवीन वस्तु उत्पन्न करने के लिए हमें यज्ञ करना होता है। 5. दूसरी संस्था है, हमारा मनुष्य-समाज। मां-बाप, गुरु, मित्र ये सब हमारे लिए मेहनत करते हैं। समाज का यह ऋण चुकाने के लिए दान की व्यवस्था की गयी है। दान का अर्थ है, समाज का ऋण चुकाने के लिए किया गया प्रयोग। दान का अर्थ परोपकार नहीं। समाज से मैंने अपार सेवा ली है। जब मैं इस संसार में आया, तो दुर्बल और असहाय था। इस समाज ने मुझे छोटे से बड़ा किया है। इसलिए मुझे समाज की सेवा करनी चाहिए। ‘परोपकार’ कहते हैं, दूसरे से कुछ न लेकर की हुई सेवा को। परंतु यहाँ तो समाज से पहले ही भरपूर ले चुके हैं। समाज के इस ऋण से मुक्त होने के लिए जो सेवा की जाये, वही दान है। मनुष्य-समाज को आगे बढ़ने में सहायता करना दान है। सृष्टि की हानि पूरी करने के लिए जो श्रम किया जाता है, वह यज्ञ है, और समाज का ऋण चुकाने के लिए तन, मन, धन तथा अन्या साधनों से जो सहायता की जाती है, वह दान है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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