सत्रहवां अध्याय
परिशिष्ट-2
साधक का कार्यक्रम
94. सुव्यवस्थित व्यवहार से वृत्ति मुक्त रहती है
3. इसलिए भगवान इस अध्याय में कार्यक्रम बता रहे हैं। हम तीन संस्थाएं साथ लेकर ही जन्म लेते हैं। मनुष्य इन तीनों संस्थाओं का कार्य भली-भाँति चलाकर अपना संसार सुखमय बना सके; इसीलिए गीता यह कार्यक्रम बताती है। वे तीन संस्थाएं कौन-सी हैं? पहली संस्था है- हमारे आसपास लिपटा हुआ यह शरीर। दूसरी संस्था है- हमारे आसपास फैला हुआ यह विशाल ब्रह्मांड- यह अपार सृष्टि, जिसके हम एक अंश हैं। जिसमें हमारा जन्म हुआ वह समाज, हमारे जन्म की प्रतीक्षा करने वाले वे माता-पिता, भाई-बहन, अड़ोसी-पड़ोसी यह हुई तीसरी संस्था। हम रोज इन तीन संस्थाओं का उपयोग करते हैं- इन्हें छिजाते हैं। गीता चाहती है कि हमारे द्वारा इन संस्थाओं में जो छीजन आती है, उसकी पूर्ति के लिए हम सतत प्रयत्न करें और अपना जीवन सफल बनायें। इन संस्थाओं के प्रति हमारा यह जन्मजात कर्तव्य हमें निरहंकार भावना से करना चाहिए। इन कर्तव्यों को पूरा तो करना है, परंतु उसकी पूर्ति की योजना क्या हो? यज्ञ, दान और तप- इन तीनों के योग से ही वह योजना बनती है। यद्यपि इन शब्दों से हम परिचित हैं, तो भी इनका अर्थ हम अच्छी तरह नहीं समझते। अगर हम इनका अर्थ समझ ले और इन्हें अपने जीवन में समाविष्ट करें, तो ये तीनों संस्थाएं सफल हो जायेंगी तथा हमारा जीवन भी मुक्त और प्रसन्न रहेगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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